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|रचनाकार=बैजू मिश्र 'देहाती'
|संग्रह=मैथिली रामायण / बैजू मिश्र 'देहाती'
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<poem>
तत्क्षण हनुमंत पक्षिराजके,
झटपट लयला ताकि बजाए।
नाग फाँसकें काटि खसौलनि,
सबहक हृदय देल हरषाए।
जापवंत बूढ़हुँ भऽ बढ़ला,
देल निशाचरकें ललकार।
आइ तोहर हम छाती तोड़ब,
मेटा देब धरती केर भारं
नहि कयलहुँ प्रहार तोहरो पर,
बूए जानि हम दया देखाए।
आबने छोड़ब प्राण हरब हम,
दनुज कहल चलि जा असहाए।
कहि त्रिशूल फेकल रजनी चर,
जामवंत पर क्रोध समेत।
बज्र समान चलल छल गतिसँ,
मुदा रीछ पति दला सचेत।
पकड़ि लेलनि हाथ सऽ ओकरा,
घुमा ओही सऽ कयल प्रहार।
उठा दजुजकें तहँ पहुँचौलक,
जहाँ छलै रावण दरबार।
देखि दुर्दशा अपन शक्तिकेर,
लाजे मन छल मृत्युक तुल्य।
बूढ़ रीछ पति देखादेने छल,
हमर बलक अछि कतबा मूल्य।
बात बनौने छल कतबा ओ,
आइ करब रमाक दल नास।
किन्तु स्वयं फल पाए घमंडक,
पओलक निज अस्त्रहिसंँ त्रास।
पुनि दोसर दिन भोरे आयल,
पितु समीप अति दम्भक संग।
काल्हि भेल से भेल आइ हम
निश्चय काटब रामक अंग।
सुनितहि रावण अति प्रसन्न भए,
पीठ ठोकि बहु दए उत्साह।
मेघनाद केर कयल प्रशंसा,
तोहर बलक के पाओत थाह।
तदनन्तर चलि गेल गुफामे,
लागल करय जयक हित यज्ञं
खबरि पाबि ई बात विभीषण,
कहल रामसँ सुनु सर्वज्ञ।
जौं ई यज्ञ पूर्णाता पाओतै,
दुर्लभ होयत जीतक आश।
करू उपाए यज्ञ भंगक हित,
तैखन होयत रिपु केर नास।
राम बजाए नील नल अंगद,
पवन पुत्र सुग्रीव बजाए।
लखनक संग गमन करबाओल,
यज्ञ ध्वंस केर कयल उपाए।
पहुँचि गुफा लग कयल उपद्रव,
सामग्री सभ कयल विनष्ट।
हारि इन्द्रजित अति क्रोधित भए,
उठल यज्ञ छल भए गेल भ्रष्ट।
अस्त्र शस्त्र लए दौगल रणहित,
लागल करए घोर संग्राम।
बानर सेना अति व्याकुल भए,
उच्चारल अवधेशक नाम।
तैखन लखन वाण संघानल,
मारल छाती बना निसानं
रक्त बमन कए खसल धरापर,
पौलक दनुज प्राण अवसान।
वाँचल छल राक्षस गण जतबा,
लंकार दिश भागल मृग तुल्य।
जहिना ओ केहरि दिस भागए,
सभक प्राण छल बनल अमूल्य।
दनुज शरीर उठा अंजनि सुत,
पहुँचौलनि लंका केर द्वार।
देखि दसानन मेघनादकें,
पीटय लगला अपन कपार।
मन्दोदरि सुनि पीटय लगली,
छाती नयनक नोर बहाए।
नगरक लोक दसाननके प्रति,
कहल दुर्वचन बहुत रिषाए।
जैतथि स्वयं बन्धु सब रहितनि,
चलि कुनीति कयलनि सब नास।
लाख पुत्रमे एको ने रहलनि,
अहंकार केर बनला दास।
मन्दोदरि बहुत समझौलनि,
भऽ गेल अंतिम पुत्रक अंत।
आबहु सिया घुरा चुटकी भरि,
सिंदुर बचा लिअ हे कंत।
किन्तु दसानन कालक बस छल,
निज भुजबल केर छलै घमंड।
रानिक सुवचन एको नहि सुनलक,
मद मतंग छल बनल अबंड।
दोसर दिवस कीशदल घेरल,
लंका केर चारू दिश द्वारा।
गरजि गरजि बाजथि सभ मिलिमिलि,
कौशलेश केर जयजयकार।
रावण सेहो चलल युद्धक हित,
दस सहस्त्र गज रथकें साजि।
कोटि कोटि सेना छल संगहि,
अगनित रथिमे जोतल बाजि।
घूरि उड़ल छल तत् अकाशमे,
दिनमनि छला भेल जनुलोप।
बहु विस्तृत छल दल दसकंधक,
सभक शरीर भरल छल कोप।
भिड़ल दुहू दल युद्धस्थलमे,
सैन्य सैन्यसँ लड़थि खेहारि।
रावण भिड़ए चलल छल रणमे,
बहुत वेगसँ गरजि दहाड़ि।
देखि रामकें बिनुरथ रणमे,
कहल विभीषण सुनु हे नाथ।
रावण लड़त बैसि रथ उपर,
विजय ने आओत अपना हाथ।
कहल राम सुनु सखा विभीषण,
ओ लड़ैत अछि नीति विरूद्ध।
पाप कयल ओकरे हित लड़इछ,
हमर धर्म अह नीति विशुद्ध।
संयम नियम न्याय धर्मक रथ,
चढ़ि लड़ि रहलहुँ लए विश्वास।
एकर विरूद्ध लड़त जे जगमे,
होयत निश्चय तकर विनास।
तुष्ट भेला सुनि वचन विभीषण,
रामक नीतिक सुखद विचार।
कयल प्रणाम चरणकें पुनि पुनि,
कहल प्रभुकके पाओत पार।
शिला उखाड़ि कीश सभ फेकथि,
राक्षस दल पर बिनु विश्राम।
शत शत राक्षस संगहि संगहि,
जाथि कानि यमराजक धाम।
व्याकुल भए सभ पीठ देखोलक,
राक्षस दल नहि बाँचत प्राण।
अछि प्रहार भीषण कीशक,
कोनो विधि नहि भेटत त्राण।
रावण आबि रहल छल रणमे,
ललकारल जुनि छोड़ह खेत।
आबि गेलहुँ युद्ध स्थल हमहुँ,
मारब राम कै सैन्य समेत।
साहस बढ़ा घुरौलक सभकें,
अपनहुँ आयल युद्धक भूमि।
शत शत वाण एक संग छोड़ए,
शमर भूमिमे चहुदिश घूमि।
मायाबल खन जाए गगनमे,
खन धरती पर आबए नीच।
खनमे राति बना बरिसाबए,
रूधिर अस्थि रामादल बीच।
व्याकुल भए कीशत दल बजला,
रक्षा करू राम रघुनाथं
आब अहाँ केर अछि भरोस टा,
तैखन हमसभ हैब सनाथ।
त्राहि त्राहि सुनि अपन सैन्य केर,
लखन गरजला आगा आबि।
आइ हनब तोहरा नहि छोड़ब,
राम कृपा फल बलकें पाबि।
हँसल ठहाका मारि दसानन,
तकै छलहुँ हम चारू कात।
तोंही थिकें लखन से जनलहुँ,
अति प्रिय सुतकें कैलं घात।
बध कए तोहरा शांतकरब मन,
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|संग्रह=मैथिली रामायण / बैजू मिश्र 'देहाती'
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तत्क्षण हनुमंत पक्षिराजके,
झटपट लयला ताकि बजाए।
नाग फाँसकें काटि खसौलनि,
सबहक हृदय देल हरषाए।
जापवंत बूढ़हुँ भऽ बढ़ला,
देल निशाचरकें ललकार।
आइ तोहर हम छाती तोड़ब,
मेटा देब धरती केर भारं
नहि कयलहुँ प्रहार तोहरो पर,
बूए जानि हम दया देखाए।
आबने छोड़ब प्राण हरब हम,
दनुज कहल चलि जा असहाए।
कहि त्रिशूल फेकल रजनी चर,
जामवंत पर क्रोध समेत।
बज्र समान चलल छल गतिसँ,
मुदा रीछ पति दला सचेत।
पकड़ि लेलनि हाथ सऽ ओकरा,
घुमा ओही सऽ कयल प्रहार।
उठा दजुजकें तहँ पहुँचौलक,
जहाँ छलै रावण दरबार।
देखि दुर्दशा अपन शक्तिकेर,
लाजे मन छल मृत्युक तुल्य।
बूढ़ रीछ पति देखादेने छल,
हमर बलक अछि कतबा मूल्य।
बात बनौने छल कतबा ओ,
आइ करब रमाक दल नास।
किन्तु स्वयं फल पाए घमंडक,
पओलक निज अस्त्रहिसंँ त्रास।
पुनि दोसर दिन भोरे आयल,
पितु समीप अति दम्भक संग।
काल्हि भेल से भेल आइ हम
निश्चय काटब रामक अंग।
सुनितहि रावण अति प्रसन्न भए,
पीठ ठोकि बहु दए उत्साह।
मेघनाद केर कयल प्रशंसा,
तोहर बलक के पाओत थाह।
तदनन्तर चलि गेल गुफामे,
लागल करय जयक हित यज्ञं
खबरि पाबि ई बात विभीषण,
कहल रामसँ सुनु सर्वज्ञ।
जौं ई यज्ञ पूर्णाता पाओतै,
दुर्लभ होयत जीतक आश।
करू उपाए यज्ञ भंगक हित,
तैखन होयत रिपु केर नास।
राम बजाए नील नल अंगद,
पवन पुत्र सुग्रीव बजाए।
लखनक संग गमन करबाओल,
यज्ञ ध्वंस केर कयल उपाए।
पहुँचि गुफा लग कयल उपद्रव,
सामग्री सभ कयल विनष्ट।
हारि इन्द्रजित अति क्रोधित भए,
उठल यज्ञ छल भए गेल भ्रष्ट।
अस्त्र शस्त्र लए दौगल रणहित,
लागल करए घोर संग्राम।
बानर सेना अति व्याकुल भए,
उच्चारल अवधेशक नाम।
तैखन लखन वाण संघानल,
मारल छाती बना निसानं
रक्त बमन कए खसल धरापर,
पौलक दनुज प्राण अवसान।
वाँचल छल राक्षस गण जतबा,
लंकार दिश भागल मृग तुल्य।
जहिना ओ केहरि दिस भागए,
सभक प्राण छल बनल अमूल्य।
दनुज शरीर उठा अंजनि सुत,
पहुँचौलनि लंका केर द्वार।
देखि दसानन मेघनादकें,
पीटय लगला अपन कपार।
मन्दोदरि सुनि पीटय लगली,
छाती नयनक नोर बहाए।
नगरक लोक दसाननके प्रति,
कहल दुर्वचन बहुत रिषाए।
जैतथि स्वयं बन्धु सब रहितनि,
चलि कुनीति कयलनि सब नास।
लाख पुत्रमे एको ने रहलनि,
अहंकार केर बनला दास।
मन्दोदरि बहुत समझौलनि,
भऽ गेल अंतिम पुत्रक अंत।
आबहु सिया घुरा चुटकी भरि,
सिंदुर बचा लिअ हे कंत।
किन्तु दसानन कालक बस छल,
निज भुजबल केर छलै घमंड।
रानिक सुवचन एको नहि सुनलक,
मद मतंग छल बनल अबंड।
दोसर दिवस कीशदल घेरल,
लंका केर चारू दिश द्वारा।
गरजि गरजि बाजथि सभ मिलिमिलि,
कौशलेश केर जयजयकार।
रावण सेहो चलल युद्धक हित,
दस सहस्त्र गज रथकें साजि।
कोटि कोटि सेना छल संगहि,
अगनित रथिमे जोतल बाजि।
घूरि उड़ल छल तत् अकाशमे,
दिनमनि छला भेल जनुलोप।
बहु विस्तृत छल दल दसकंधक,
सभक शरीर भरल छल कोप।
भिड़ल दुहू दल युद्धस्थलमे,
सैन्य सैन्यसँ लड़थि खेहारि।
रावण भिड़ए चलल छल रणमे,
बहुत वेगसँ गरजि दहाड़ि।
देखि रामकें बिनुरथ रणमे,
कहल विभीषण सुनु हे नाथ।
रावण लड़त बैसि रथ उपर,
विजय ने आओत अपना हाथ।
कहल राम सुनु सखा विभीषण,
ओ लड़ैत अछि नीति विरूद्ध।
पाप कयल ओकरे हित लड़इछ,
हमर धर्म अह नीति विशुद्ध।
संयम नियम न्याय धर्मक रथ,
चढ़ि लड़ि रहलहुँ लए विश्वास।
एकर विरूद्ध लड़त जे जगमे,
होयत निश्चय तकर विनास।
तुष्ट भेला सुनि वचन विभीषण,
रामक नीतिक सुखद विचार।
कयल प्रणाम चरणकें पुनि पुनि,
कहल प्रभुकके पाओत पार।
शिला उखाड़ि कीश सभ फेकथि,
राक्षस दल पर बिनु विश्राम।
शत शत राक्षस संगहि संगहि,
जाथि कानि यमराजक धाम।
व्याकुल भए सभ पीठ देखोलक,
राक्षस दल नहि बाँचत प्राण।
अछि प्रहार भीषण कीशक,
कोनो विधि नहि भेटत त्राण।
रावण आबि रहल छल रणमे,
ललकारल जुनि छोड़ह खेत।
आबि गेलहुँ युद्ध स्थल हमहुँ,
मारब राम कै सैन्य समेत।
साहस बढ़ा घुरौलक सभकें,
अपनहुँ आयल युद्धक भूमि।
शत शत वाण एक संग छोड़ए,
शमर भूमिमे चहुदिश घूमि।
मायाबल खन जाए गगनमे,
खन धरती पर आबए नीच।
खनमे राति बना बरिसाबए,
रूधिर अस्थि रामादल बीच।
व्याकुल भए कीशत दल बजला,
रक्षा करू राम रघुनाथं
आब अहाँ केर अछि भरोस टा,
तैखन हमसभ हैब सनाथ।
त्राहि त्राहि सुनि अपन सैन्य केर,
लखन गरजला आगा आबि।
आइ हनब तोहरा नहि छोड़ब,
राम कृपा फल बलकें पाबि।
हँसल ठहाका मारि दसानन,
तकै छलहुँ हम चारू कात।
तोंही थिकें लखन से जनलहुँ,
अति प्रिय सुतकें कैलं घात।
बध कए तोहरा शांतकरब मन,
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