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{{KKRachna
|रचनाकार=राग तेलंग
|संग्रह=
}}
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<poem>मेरे समय के सच में
सच में
बहुत ज्यादा झूठ घुल-मिल गया है
झूठ मेरे समय का सच है
बेहद मुश्किल है और ख़तरनाक भी
आज का सच
पूरा का पूरा
बर्दाश्त कर सकना
लिखूं भी तो
पढ़ेगा कौन ?
अपने समय का सच
और पढ़ेगा भी तो
क्या मुफीद लगेगा
अपने समय का सच ?
पहचान के संकट के दौर में
सच की पहचान संकट में है ।
</poem>
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<poem>मेरे समय के सच में
सच में
बहुत ज्यादा झूठ घुल-मिल गया है
झूठ मेरे समय का सच है
बेहद मुश्किल है और ख़तरनाक भी
आज का सच
पूरा का पूरा
बर्दाश्त कर सकना
लिखूं भी तो
पढ़ेगा कौन ?
अपने समय का सच
और पढ़ेगा भी तो
क्या मुफीद लगेगा
अपने समय का सच ?
पहचान के संकट के दौर में
सच की पहचान संकट में है ।
</poem>