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हां ! शेर भी / राग तेलंग

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<poem>शेरों के मॉल के बाहर
एक गुफा थी
अंधियारी

गुफा में
एक लोहार, एक बढ़ई, एक मोची,
एक दर्जी, एक कुम्हार, एक मदारी
जैसे कई एक आकर
रात गुजारा करते और
रात-रात भर आंसू बहाया करते
प्लास्टिक की नई दुनिया के नाम पर

एक दिन सबने मिलकर
अपने-अपने मन के भीतर
एक-एक पौधा रोपा
उसे अपने आंसुओं से सींचा

फिर पहले एक पेड़ बड़ा हुआ
फिर दूसरा, फिर तीसरा, फिर चौथा, फिर पांचवा ऐसे सबके कई एक पेड़

आखिरकार एक समूचा जंगल
सबके भीतर उग आया
वहां ठंडी हवाएं होती थीं
बारिश होती थी
फूल खिलते थे, कूक गूंजती
भंवरे, तितलियां, परिंदे, जानवर
सब होते थे सब एक तरतीब में जीते रहते थे

यह देखकर शेर दहाड़ने लगे
फिर बसे-बसाये जंगल की ओर जाने लगे

जंगल ने पुकार लगाई तो लोहार, मोची, दर्जी, कुम्हार
जैसे सब मिलकर इकट्ठा हो गए
सबने मिलकर ए...ए...ए... एक आवाज लगाई

शेरों के अंदर का जंगल कांप उट्ठा
वे घबराकर कंक्रीट के जंगल की ओर लौट गए

गुफा में उस रात मदारी ने सबको बताया
शेर सबकी एक आवाज से डरते हैं।
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