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|रचनाकार=शैलजा पाठक
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|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी
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<poem>वो गांव को छोटा कर रहे हैं शहर को बड़ा
पहाड़ को छांट रहे हैं पेड़ों को काट रहे हैं
नदियों के नाम पर बची है
एक धागे सी कृश देह
रेत की गाडिय़ां आने वाली हैं
अब नदियां सोख ली जायेंगी

ठीक वहां जहां पहाड़ से
एक झरना फूटता था
एक विस्फोट होगा हजार टुकड़ों में बिखरेंगे
पहाड़ी गीतों के मीठे बोल

ठीक वहां जहां गांव के सबसे बड़े पेड़ पर
सामूहिक झूला पड़ता था
वहां रस्सियों में झूल जाएंगी
हमारी बहन बेटियां
सावन का महीना है, न भी हो तो भी

और ये भी हम सभ्यता
और उन्नति के चरम पर हैं
नदी की आखिरी मीठे पानी की विदा लेती अंतिम बूंद
उस गर्भ में मारी गई बच्ची की आंख में होगी
बचा सकते हो तो बचा लो

बचा लो
कि विदा कहती नदियां, पहाड़, झरनों और बेटियों ने...
तुम्हारे जन्म पर दूध भरी छातियों से
तुम्हे ज़िन्दा रखा
तुम्हारे आगमन पर गीतों के सोते फूटे थे।</poem>
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