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|संग्रह=राग हंसध्वनि / कुमार रवींद्र
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<poem>
<b>दृश्य - एक</b>

<b>[ अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण की अश्वशाला में स्थित एक आवास-कक्ष| रात्रि का दूसरा प्रहर | एक वातायन के निकट बाहुक के रूप में एक चौकी पर बैठे हुए नल खुली आँखों शून्य में देख रहे हैं | उनका चिन्तन चल रहा है ]</b>

<b>नल -</b> (आत्मालाप ) : कैसा है नियतिचक्र !
घटनाएँ होती हैं
और व्यक्ति
कर्त्ता का दर्प लिये उनसे बँध जाता है |
अपना हर अंधकार
अपना हर सूर्योदय
लगता है अनुपम ही -
किन्तु इन्हें रचती जो
उस आदिम इच्छा को देख नहीं पाते हम |
फूलों के खिलने से झड़ने तक
एक क्रिया चलती है अंतहीन -
खिलना या झड़ना हैं जिसके दो रूप मात्र |
किन्तु अहंकार हमें छलता है
और हम नियंता होने के ...
झूठे आश्वासन से भरे हुए
रोज़ नई आशाएँ रचते हैं -
फूलों के खिलने से जुड़ते हैं
झड़ने से कटते हैं
अपनी मर्यादा का उल्लंघन करते हैं |
ऐसा है नियतिचक्र |

राजा से रंक
और रंक से राजा होने का
एक नियतिबद्ध चक्र चलता है -
हम उसको रोक नहीं पाते हैं |

कल तक मैं चक्रवर्ति राजा था -
देवों का प्रिय था -
रूपवान-गुणी और वीर था -
कुशल प्रशासक था -
कीर्तिवान जन-जन का रंजक था ...
किन्तु बना आज, हाय !
दास-सारथी राजा ऋतुपर्ण का |
राज गया -देश गया
परिजन-परिवार गये
नाम-गाँव-रूप सब गये -
राजा था -दास हुआ -
कैसा यह नियतिचक्र
<b>[ बाहर दूर हंसध्वनि सुनाई देती है ]</b>
आये ...
फिर लौट गये राजहंस -
लाये संदेश नहीं कोई दमयन्ती का
आज भी |
तप रहा सरोवर है
हंसिनी अकेली है एक ओर ...
पता नहीं कहाँ ...
दूर हंस बंदी है -
दोनों अभिशप्त हैं -
क्या करूँ ?
शिला हुए चन्दन-वन
और नाग लिपटे हैं ज़हरीले
क्या करूँ ?
अंधी संज्ञाओं का
सूर्योदय होने का आकुल अनुरोध है
क्या करूँ ?
अपराधी साँसों का एक हठी चक्रवाल
डूब रहा उसमें मन
क्या करूँ ?

<b>[ एक हंस उड़ता हुआ निकट आता है - गवाक्ष की मुंडेरी पर बैठकर क्रेंकार करता है ]</b>

राजहंस, यह क्या ... ...?
तुम भी एकाकी हो
आकुल हो टेर रहे अपनी प्रिया हंसी को |
छोड़ उसे आये तुम
पथरीले पर्वत पर... निस्सहाय
और रहे खोज उसे इधर-उधर, बावरे |
प्रियाहीन मुझसे क्या पूछ रहे
अपनी जलहंसी की खोज-खबर ?
लाये संदेश तुम क्या कोई ...
मेरी दमयन्ती का ?

<b>[ हंस तेज क्रेंकार करता हुआ उड़कर दूर चला जाता है | नल उदास और खिन्न-मन देखते रह जाते हैं ]</b>

हंस यही आये थे उस दिन भी -
कैसा था अद्भुत वह प्रणय-पर्व -
स्वप्निल आस्थाओं का -
मेरी दमयन्ती की छवियों से घिरा हुआ -
रूपवान आदिम संज्ञाओं का वह बैभव
दिप-दिप है करता अंतर में आज भी ...
पहले सूर्योदय-सा |
<b>[ बाहर दूर हंसध्वनि सुनाई देती है ]</b>
उस सुहाग-बेला में
ताल के किनारे मैं मलय-प्रश्न सुनता था
बाहर भी ... अंदर भी
आये थे तभी धूप लिये हुए
पंखों पर ... हंस-युगल
मीठी क्रेंकारों से मेरा मन मोहा था |

<b>[ पारदर्शिका में दृश्य झिलमिलाता है - स्पष्ट होता है | निषध देश का राजोद्यान | राजा नल ताल के किनारे एक आसंदी पर अधलेटे हैं | निकट ही एक हंस-युगल वार्तारत है | नल उत्सुक उनकी वार्ता सुनते हैं ]</b>


<b>हंसिनी -</b> जैसी है दमयन्ती
सुन्दरी अपूर्व और सम्मोहक
वैसे ही ये राजा नल हैं |
अद्भुत हैं ...
और हैं अलौकिक दोनों के रूप-गुण |

<b>हंस -</b> हाँ, विदर्भ-कन्या है रूपसी अपार्थिव -
इस धरती पर ...
कोई उसके समकक्ष नहीं |
अप्सराएँ भी लज्जित होती हैं
उसका सौन्दर्य देख |

यह नल भी दिखता है देव-तुल्य |
धरती पर
रूप और गुण दोनों साथ मिलें
कभी-कभी होता है |
पूर्ण पुरुष और पूर्ण नारी हैं ये दोनों |
फूलों की संज्ञा वह
यह है ऋतुराज स्वयं |

<b>हंसिनी -</b> लगता है
दोनों की सृष्टि की विधाता ने
मिलन हेतु |

<b>हंस -</b> हाँ, प्रिये ! ... ...

<b>नल ( स्वयं से ) -</b> - यह इनकी बातचीत अनुपम है और सुखद |

पहले भी ...
वणिक कई
यायावर विप्रदेव
और वटुक-सन्यासी
लाये हैं समाचार ऐसे ही |
भाट और चारण भी रूपगान करते हैं
इस विदर्भ-कन्या का ... बार-बार -
विरुदावलि रूप-गुण-स्वभाव की
फैल रही सभी ओर |

और आज पक्षी ये
कर रहे बखान उसी कन्या का |
मन मेरा अतिशय उत्कंठित है -
बेकल भी |
सुनकर गुण मधुर भाव प्राण में उपजते हैं
और हृदय
मीठी धुन रोज़ गुनगुनाता है |
जहाँ कहीं दृष्टिपात करता हूँ
सभी ओर लगता है
बिखरा सौन्दर्य है केवल दमयन्ती का |

मोहित हूँ
मुग्ध हुआ चर्चा से -
मन को अब रोकना असंभव है |

<b>[ अचानक कुछ सोचकर उठते हैं और चुपके से निकट बैठे हंस को पकड़ लेते हैं | हंस जोरों से क्रेंकार करते हुए अपने को छुड़ाने के लिए पंख फड़फड़ाता है | हंसिनी भी उड़कर वहीँ-वहीं मंडहंसिनी राती हुई जोर-जोर से चिल्लाती है | किन्तु नल हंस को पकड़े रहते हैं | हंसिनी विलाप करती हुई नल को संबोधित करती है ]</b>

<b>हंसिनी -</b> महाराज !
आप बड़े ज्ञानी हैं
और परम न्यायी भी |
मेरे इस हंस को छोड़ दें |
प्रार्थी हूँ -
शरणागत हूँ मैं आपकी |

<b>नल -</b> अभी-अभी
चर्चाएँ करते थे तुम दोनों
किसी राजकन्या की |

है विदर्भदेश बहुत दूर -
सुना, कुण्डिनपुर नगरी है बड़ी विशद -
प्रभुता -समृद्धि भरी |

<b>हंसिनी -</b> हाँ, राजन !
कुण्डिनपुर स्वप्नपुरी
और वहाँ के राजा भीमक की पुत्री है दमयन्ती -
उसकी ही चर्चाएँ करते थे हम दोनों |
पृथ्वीपति !
मेरे इस हंस को .. मुक्त करें |
हम दोनों कुण्डिनपुर जायेंगे ...
सुनें, वहाँ सूर्योदय रहता है ...
हर पल ही -
रूपसी दमयन्ती ...
सूर्य-रश्मि सी दिपती रहती है हर समय
उस स्वप्निल नगरी में |


<b>हंस -</b> निषधराज !
दमयन्ती सभी भाँति योग्य है तुम्हारे ही |
तुम जैसे पुरुषों में सर्वोत्तम
वैसी ही नारिश्रेष्ठ, सच में, है दमयन्ती |
हम दोनों जायेंगे कुण्डिनपुर
प्रणय-दूत बन कर ...
हाँ, आपके ... ...
<b>[ नल हंस को छोड़ देते हैं | क्रेंकार करते हुए हंस-हंसिनी उड़ जाते हैं | नल दूर क्षितिज पर उनके आकारों को धुंधलाते देखते रहते हैं | पारदर्शिका में उभरा दृश्य धुँधला हो जाता है ]</b>

<b>नल -</b> (आत्मालाप ) - मीठी क्रेंकार वह हंसों की
और हुई मीठी थी |
बार-बार आये थे प्रीति-प्रश्न लेकर वे
सम्मोहक ...
मेरी दमयन्ती के |
मेरा भी आतुर संदेश ले
बार-बार लौटे थे कुण्डिनपुर |
और फिर
आया था वह दिन भी
अंततः स्वयंबर का |

देवों ने कैसा था जाल रचा -
प्रीति की परीक्षा का वह क्षण था
कालहीन -
कई-कई युग जैसे क्रूर
सिमट आये थे ...
मेरी थे अंतहीन यातना
और ...
भोली दमयन्ती की वह कठिन परीक्षा थी |

<b>[ पारदर्शिका में दमयन्ती-स्वयंबर का दृश्य उघरता है | दमयन्ती वरमाला लिये सभी राजाओं के पास से गुजरती हुई उस स्थान पर पहुँचती है, जहाँ राजा नल बैठे हैं | एक ही मुखाकृति के पाँच व्यक्तियों को एक-साथ बैठे देखकर वह भ्रमित होती है - समझ नहीं पाती है किसे माला डाले | उसके चेहरे पर गहरे भावों-विचारों मंथन दिखाई देता है | फिर वह कुछ क्षणों के ऊहापोह के बाद असली नल को वरमाला पहना देती है ]</b>

<b>नल -</b> (आत्मालाप ) - कैसा था अन्तराल वह ...
निर्मम दुविधाओं का !

निर्णय की बेला वह -
दमयन्ती ने देवताओं को था पहचान लिया
और वरा मानव को आगे बढ़ -
मेरा सौभाग्य था |

किन्तु ... हाय !
ठगी गई दमयन्ती |
कैसा दुर्भाग्य हुआ -
छोड़कर उसे निर्जन में सोता-असहाय और निराधार
मेरा वह पलायन ...
पहले अपराधी था उसका
और अब ...
अज़नबी-पराया हूँ |

पता नहीं
कहाँ और कैसी होगी मेरी प्रिया ?

दैव ! सुबह हो रही -
बीत रहा अंधकार बाहर का
पर अंदर अँधियारा बढ़ता ही जाता है
क्या करूं ?

आहट है पौरी में -
कोई इधर आता है |
दमयन्ती ...
विदा यहीं ... दिन-भर को |

<b>[ कक्ष से बाहर निकल जाते हैं ]</b>
</poem>
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