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|संग्रह=राग हंसध्वनि / कुमार रवींद्र
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<b>दृश्य - चार</b>

<b>[ सायंकाल का दियाबाती का समय | दमयन्ती झरोखे में बैठी बढ़ते अंधकार में डूब रही है | केशिनी प्रवेश करती है | दमयन्ती को एकाकी अंधियारे में बैठे देखकर कहती है ]</b>

<b>केशिनी -</b> : यह क्या, दमयन्ती -
बैठी है फिर तू एकांत में खिन्नमना
अंधकार किये हुए कक्ष में |

अभी मैं प्रकाश किये देती हूँ |

<b>दमयन्ती -</b> : नहीं ... सखी, नहीं ...
अंधकार रहने दे कक्ष में -
अंदर जो अँधियारा
उसमें ही जलने दे यादों की बातियाँ |
बाहर के दीपों के जलने से
भीतर के दीपक बुझ जायेंगे -
अँधियारा और अधिक गहरा हो जायेगा |

आ जा ... तू पास बैठ -
अँधियारा बढ़ने दे
होने दे और अधिक खिन्नमना साँसों को -
यादों के टापू पर विचर रहीं
आकृतियाँ सपनों की -
आती हैं पास वे गहरे अँधियारे में |
किन्तु ... हाय !
साथ नहीं रहती हैं देर तक |

केशिनी !
क्या वसंत यह भी अनचाहा बीत जायेगा ?
पति की परित्यक्ता हूँ -
वे सूने वन की
आतंकित यात्राएँ ही ...
क्या मेरी नियति हुईं ?

कैसा था अंधकार -
वैसा ही जैसा अब भीतर है -
महाघोर जंगल का !
सूखे पत्तों की खड़खड़ के बीच
कई आहटें ... अनजानी ...
केवल आतंकों की -
ध्वनियाँ कुछ बाहर की
कुछ गहरे अंदर की
बार-बार बजती हैं |

कैसी थी कालरात्रि ...
और मैं
एकाकी विभ्रमित ...
जैसे साकार भय सभी और फैला था !
देखो तो, आकृतियाँ उस भय की
अब भी हैं नाच रहीं मुझे घेर |

और फिर ...
दानव--विकृतियों का संघातक घेरा वह -
महासरीसृप की कुंडली ...
वह विराट गुंजलक ...
जकड़न वह मर्मान्तक ...
अंत नहीं है उसका |
बार-बार कहकर भी शांत नहीं होती है
व्याकुलता ...
लिजलिजे प्रसंगों का वह अनुभव ....

<b>[ पारदर्शिका में एक विशाल अजगर की छायाकृति पृष्ठभूमि में एक महावट से लटकी है | पूरे परिदृश्य पर उस छायाकृति की गुंजलक फैली है | दमयन्ती की आकृति उसमें जकड़ी दिखाई देती है - दमयन्ती चीत्कार कर रही है | तभी एक व्याध नंगी तलवार लिये प्रवेश करता है | अजगर और व्याध की छायाकृतियाँ युद्ध-नृत्य करती हैं | अंत में व्याध तलवार से बार-बार वार करता है और अजगर की देह कई टुकड़ों में खंडित दिखाई देती है | व्याध मूर्च्छित दमयन्ती को अजगर की मृत गुंजलक से मुक्त कर एक वृक्ष के नीचे लिटा देता है | अपने सिंगे से जल लेकर उसके मुँह पर छींटे मारता है, कुछ जल की बूँदें उसके मुँह में भी डालता है | दमयन्ती चैतन्य हो जाती है | व्याध उसे सहारा देकर उठाकर बिठा देता है और फिर उसके स्वस्थ होने के उपरांत काम-चेष्टाएँ करता है | दमयन्ती भयभीत आतंकित इधर-उधर भागती है | व्याध उसे पकड़ने की चेष्टा करता है - आदिम आखेट की मुद्राएँ | वह दमयन्ती के निकट पहुँचकर उसे पकड़ना चाहता है | दमयन्ती की आँखों में क्रोध और आक्रोश केन्द्रित हो जाता है | उसकी वाणी गूँजती है ]</b>

<b>दमयन्ती -</b> : देवो !
वनदेवियो !
वृक्षों ! लताओ ! चट्टानो !
पर्वत के ढालों से उतर रही जलपरियो !
वनवासी आत्माओ !
होओ तुम साक्षी दमयन्ती के सत्त्व के|

यह कामी नर-पशु ...
मुझ पर अनाचार कर रहा -
अब सतीत्व ही मेरा रक्षक है |
यदि मैंने जाग्रत या स्वप्न में
अन्य पुरुष का चिन्तन है नहीं किया
यदि मेरे पुण्य नष्ट नहीं हुए
यदि मेरी आस्थाएँ शुद्ध हैं
यदि मेरे पंच तत्त्व हैं पवित्र
तो मेरी देह यह ...

अग्निदेव ! तुम ही अब त्राता हो ...
मुक्त करो |

व्याध यह ...
मेरा था रक्षक और बन्धु भी ...
किन्तु हुआ बुद्धि-भ्रष्ट
और हुआ भक्षक ...
इससे अब त्राण दो, अग्निदेव !

<b>[ दमयन्ती की देह से एक अग्नि-ज्वाल उठता है | व्याध के बढ़ते कदम एकदम ठिठक जाते हैं | किन्तु वह अग्नि-ज्वाल उसकी ओर लपककर उसे घेर लेता है | व्याध का पूरा शरीर लपटों से घिरकर भस्म हो जाता है | देववाणी गूँजती है ]</b>

<b>देववाणी -</b> : दमयन्ती !
सृष्टि-नियम यही ...
नष्ट हो कुकर्मी आततायी -
होगी निर्दोष और शुद्ध तभी सृष्टि यह |

इस पामर ने अपने कर्मों से
सृष्टि-नियम तोड़ा था
इसीलिए नष्ट हुआ |

तुम हो धरोहर निषधराज की
हम सब हैं साक्षी इस सत्य के |
तुम दोनों ,,, सात्त्विक मर्यादा के
शुद्ध सहज प्रीति के
रूपक हो मूर्तिमान |
जीवित रहेगा सदा प्रेम यह तुम्हारा |

बीतेगा शीघ्र ही पीड़क दुष्काल यह
देते आशीष हम|
देखो, वनदेवियाँ गाती हैं गीत वही
हंसों की गाथा का ...
<b>[ देववाणी धुँधला जाती है | वनदेवियों का सामूहिक मधुर संगीत पूरे वन में फेल जाता है | दमयन्ती उसे स्वप्नवत सुनती है ]</b>

<b>वनदेवियाँ -</b> ( समूहगान ) : हंस-युगल आये थे
हंस-युगल आयेंगे बार-बार |
गाथा दोहराएँगे वही-वही
सपनों की, प्रेम की, आस्था की
जन्मों तक |

अभी हंस चला गया छोड़कर
अपनी इस हंसी को सौंप हमें |
आयेगा ...
वह अवश्य आयेगा |
लौटेंगे कोमल-गांधार पर्व
निश्चित ही |

<b>[ पारदर्शिका समाप्त होजाती है | दमयन्ती अचानक चौंक कर अपने चारों ओर देखती है | लगता है जैसे वह सोते से जागी हो | केशिनी उसके मनोभावों को समझकर कहती है ]</b>

<b>केशिनी -</b> : हाँ, रानी ऐसा ही होगा |
लौटेंगे निषधराज निश्चित ही -
होंगे सम्राट फिर
और सखी ....

<b>[ दमयन्ती उसकी बात को बिना सुने, जैसे स्वप्न में स्वयं से कह रही हो, बोलती है ]</b>

<b>दमयन्ती -</b> : ऋषियों का आश्रम वह ...
कैसा आकर्षक था
जिसमें मैं पहुँची थी रात-ढले !
सूर्योदय की पवित्र वेला में
दिपता था धूप-सा तपोवन वह |
और नदी की धारा
जैसे ... देती आशीष हो -
मन्त्र-ध्वनि और ऋचा-गूँजों में डूबी थी
पूरी वनखंडी वह |
गूँजी थी ऋषि-वाणी ...

<b>[ ऋषियों के आशीर्वचन नेपथ्य में गूँजते हैं ]</b>

<b>ऋषि-वाणी -</b> : हम भविष्य देख रहे, दमयन्ती !
सुख-समृद्धि
और सभी वैभव इस जीवन के
तुमको उपलब्ध हों
यही ईश-इच्छा है !

<b>[ दमयन्ती के चेहरे पर एक दैवी मुस्कान छाई है ]</b>

<b>दमयन्ती -</b> ( स्वयं से ) : कैसा आश्चर्य हुआ !
देवलोक-सा वह दृश्य
अनुपम आस्थाओं का दान कर
हो गया अचानक ही था विलुप्त |

और फिर...
यात्रा वह -
वणिकों का सार्थवाह जाता था चेदि देश
और मैं हुई थी साथ |
मेरा दुर्भाग्य, हाय !
उनको भी व्याप गया |

<b>[ दमयन्ती के चेहरे पर व्यथा और आत्म-वंचना के भाव उभर आते हैं | केशिनी उसे रोककर कहती है ]</b>

<b>केशिनी -</b> : नहीं ... नहीं, दमयन्ती !
बार-बार कहो नहीं
अपनी यह व्यथा-कथा -
सहन नहीं होती है |

<b>[ दमयन्ती जैसे सुनती ही नहीं -स्वयं से ही बोलती जाती है ]</b>

<b>दमयन्ती -</b> : अर्द्धरात्रि !
शिविर-मध्य कैसा सन्नाटा था -
सोते थे सभी लोग
केवल मैं थी जाग रही |
आया था हस्ति-दल जंगल से
प्रबल प्रभंजन-सा -
चीत्कार और हाहाकार मध्य
हुई मृत्यु-लीला थी -
नर-नारी, बाल- वृद्ध सब थे कालग्रस्त हुए |
किन्तु मैं अभागिन ...
फिर भी रही जीवित |
देखा था मैंने इन आँखों से
संहारक दृश्य वह -
शव-ही-शव
सभी और बिखरे थे पड़े हुए
और मैं ... उनके बीच जीवित रही
शाश्वत दुर्भाग्य-sii |
पता नहीं ... कैसे फिर पहुँची थी
चेदिदेश ...
पगलाई और अर्द्ध-मूर्च्छित मैं ...

<b>[ कहते-कहते दमयन्ती मूर्च्छित हो जाती है | केशिनी उसे उठाकर शैया पर लिटा देती है| एकाएक पूरा कक्ष एक गहरे अंधकार में डूब जाता है | केशिनी की सिसकियाँ पूरे कक्ष में गूँजती है ]</b>
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