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|रचनाकार=कमलेश द्विवेदी
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<poem>हर खाई को पाटा जाये.
हर इक का ग़म बाँटा जाये.

वो ग़लती हम भी कर सकते,
बच्चों को क्यों डाँटा जाये.

सोच मुनाफ़ा औरों का तो,
तेरा भी सब घाटा जाये.

शाखायें ही काटें-छांटें,
पेड़ न जड़ से काटा जाये.

आओ हम सब मिलकर बैठें,
बस्ती से सन्नाटा जाये.

इक डाली का होकर भी क्या,
फूलों के सँग काँटा जाये.

जबसे घर टूटा है तबसे,
क्या-क्या टूटा-टाटा जाये.

माँ बीमार पड़ी है, बेटा
करने सैर-सपाटा जाये.

अच्छे और बुरे इक जैसे,
सोचो कैसे छाँटा जाये.
</poem>
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