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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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<poem>
कल जो कहते रहे आएंगे न जाने वाले
मुन्तज़िर वो भी हैं, वो आज हैं आने वाले

बेस क़ीमत है यहाँ बूँद भी इक पानी की
याद रक्खें इसे, बेवज़ह बहाने वाले

शम्स ता क़मर, ज़मीं, झील कि दरिया, पर्वत
हैं मनाज़िर ये सभी दिल को लुभाने वाले

कुछ नहीं बदला है क्या?, हाँ! तो बदल दो ये भी
साल-दर-साल सितम क्यों हैं पुराने वाले

तल्ख़ लहजे से न कर अपनों को तू बेगाना
रूठ जाएँ न कहीं तुझको मनाने वाले

ऐ ख़ुदा उनके मुक़द्दर भी मुनव्वर कर दे
हैं सरे राह दिये रोज़ जलाने वाले

क़िस्सा-ए-जीस्त सुनाए हैं बहुत तुझको 'रक़ीब'
अब जो बाक़ी हैं, नहीं तुझको सुनाने वाले
</poem>
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