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बजार / जय नारायण त्रिपाठी

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|रचनाकार=जय नारायण त्रिपाठी
|संग्रह= मंडाण / नीरज दइया
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<poem>
आ दुनिया एक बजार!
जठै आपां बेचां हां खुद नैं,
कीं और पावण खातर।
खुद नैं बेचा हां, नरा ई रूप में, नरी जग्या ।
बेच सकां खुद नैं,
खुद का मांयला मनख नैं,
पण कदी खुद, खुद नैं कांई नीं खरीद सकां?

आ दुनिया एक बजार!
जठै आपां मोल लेवां नरी चीजां,
आपणा टैम, आपणा सुपना
अर आतमा नैं बेच-
वै चीजां, जकी बिना ई चाल सकतो हो आपणो जीवण!
आखी दुनिया मोल लेणो चावां हां, पण
कदी ई मोल लेबा की इच्छा नैं कांई नीं बेच सकां?

आ दुनिया एक बजार!
जठै बिकै है, घर-गवाड़ी, मकान-दुकान
गाडी-घोड़ा अर प्रेम;
कदी कम मोल में, अर कदी बत्ता में-
बेचा हां, आपणै बाळपणै नैं
जवानी खातर
अर जवानी नैं बूढापा खातर
सब कर सकां, पण
ईं बजार में वैपार का बना कांई नीं जी सकां?
</poem>
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