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|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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<poem>
ज़रा तूफ़ान से परवाज़ का जब सामना निकला
तो कितने ही परिंदों का हवा में बचपना निकला

नदी ने धूप से क्या कह दिया थोड़ा-सा इतरा कर
कि पानी का हर इक कतरा उजाले में छना निकला

ज़रा खिड़की से छन कर चाँद जब कमरे तलक पहुँचा
तेरी यादों का दीवारों पे इक जंगल घना निकला

सुहाना साथ था बस्ती की गलियों में, मगर जब भी
मिला सड़कों पे तो, फिर अजनबी सा वो बना निकला

दिखे जब चंद अपने ही खड़े दुश्मन के ख़ेमे में
नसों में दौड़ते-फिरते लहू का खौलना निकला

मसीहा-सा बना फिरता था जो इक हुक्मरां अपना
मुखौटा हट गया तो क़ातिलों का सरगना निकला

चिता की अग्नि ने बढ़कर छुआ था आस्माँ को जब
धुयें ने दी सलामी, पर तिरंगा अनमना निकला









(त्रैमासिक शेष जुलाई-सितम्बर 2009, मासिक समावर्तन सितम्बर 2013)
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