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{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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<poem>
बस गयी है रग-रग में बामो-दर की ख़ामोशी
चीरती-सी जाती है अब ये घर की ख़ामोशी

सुब्‍ह के निबटने पर और शाम ढ़लने तक
कितनी जानलेवा है दोपहर की ख़ामोशी

चल रही थी जब मेरे घर के जलने की तफ़्तीश
देखने के काबिल थी इस नगर की ख़ामोशी

काट ली हैं तुम ने तो टहनियाँ सभी लेकिन
सुन सको जो कहती है चुप शजर की ख़ामोशी

छोड़ दे ये चुप्पी, ये रूठना ज़रा अब तो
हो गयी है परबत-सी बित्‍ते भर की ख़ामोशी

देखना वो उन का चुपचाप दूर से हम को
दिल में शोर करती है उस नज़र की ख़ामोशी

जब से दोस्तों के उतरे नकाब चेहरे से
क्यूँ लगी है भाने अब दर-ब-दर की ख़ामोशी

पड़ गयी है आदत अब साथ तेरे चलने की
बिन तेरे कटे कैसे ये सफ़र की ख़ामोशी





(लफ़्ज़ फरवरी 2011, जनपथ दिसम्बर 2013)
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