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|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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<poem>
पसीने में पिघलते पस्त दिन की सब थकन गुम है
मचलती शाम क्या आयी, है गुम धरती, गगन गुम है

भला कैसे नहीं पड़ते हवा की पीठ पर छाले
पहाड़ों से चुहलबाज़ी में बादल का कुशन गुम है

कुहासा हाय कैसा ये उतर आया है साहिल पर
सजीले-से, छबीले-से समन्दर का बदन गुम है

खुली छाती से सूरज की बरसती आग है, लेकिन
सिलेगा कौन उसकी शर्ट का जो इक बटन गुम है

उछलती कूदती अल्हड़ नदी की देखकर सूरत
किनारों पर बुढ़ाती रेत की हर इक शिकन गुम है

भगोड़े हो गए पत्ते सभी जाड़े से पहले ही
धुने सर अब चिनार अपना कि उसका तो फ़िरन गुम है

ज़रा जब धूप ने की गुदगुदी मौसम के तलवों पर
जगी फिर खिलखिलाकर सुब्ह, सर्दी की छुअन गुम है

जो पूछा आस्माँ ने जुगनुओं से "ढूँढते हो क्या?"
कहा हँसकर उन्होंने, चाँद का नीला रिबन गुम है

किसी ने झूठ लिक्खा है, असर होता है सोहबत में
कि रहकर साथ काँटों के भी फूलों से चुभन गुम है





(समावर्तन, जुलाई 2014 "रेखांकित")
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