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{{KKRachna
|रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'
|संग्रह=प्रेम पीयूष / बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'
}}
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<poem>
बक पाँति पताका उड़ै नभ सिन्धु में,
::चाँप सुरेस धरे छवि छाजत।
जाचक चातक तोपत मोतिन
::लौं झरि बुन्दन की बरसावत॥
देखिये तो घन प्रेम भरे,
प्रजा पुंज से मोर हैं सोर मचावत।
आज जहाज चढ़े महराज,
::मनोज मनो घन पैं चढ़े आवत॥
</poem>
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बक पाँति पताका उड़ै नभ सिन्धु में,
::चाँप सुरेस धरे छवि छाजत।
जाचक चातक तोपत मोतिन
::लौं झरि बुन्दन की बरसावत॥
देखिये तो घन प्रेम भरे,
प्रजा पुंज से मोर हैं सोर मचावत।
आज जहाज चढ़े महराज,
::मनोज मनो घन पैं चढ़े आवत॥
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