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पावस - 14 / प्रेमघन

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|संग्रह=प्रेम पीयूष / बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'
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<poem>
बिरह बढ़ावन या सावन की रजनी मैं,
::जीगन के गन को अकास में प्रकास है।
चंचला चपल चमकत चहुँ ओर चख,
::चितवन हूँ को न मिलत अवकास है॥
प्रेमघन घन की घटा है घोर घहरात,
::घरता बूँदैं उपजाय उर त्रास है।
पी कहाँ पपीहा साँची कहन भटू है अब,
::परदेसी पिय की न आवन की आस है॥
</poem>
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