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{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
ख़्वाब की थी आँच कैसी, नींद जलती रह गयी
रात फिर से रात भर करवट बदलती रह गयी
बिस्तरे के सिलवटों की देख कर बेचैनियाँ
सिसकियाँ तकिये ने ली, चादर मचलती रह गयी
यूँ तो सब कुछ ठीक ही था बिन तेरे भी, हाँ मगर
दिन खिसकता रह गया बस शब फिसलती रह गयी
रेडियो पर 'तूने ओ रंगीले' जब बजने लगा
केतली में खदबदाकर चाय उबलती रह गयी
रह गईं उलझी किचेन में भीगी ज़ुल्फ़ों की घटा
और छत पर धूप बेबस हाथ मलती रह गयी
चौक पर बाइक ने जब देखा नज़र भर कर उधर
कार की खिड़की में इक चुन्नी संभलती रह गयी
एक कप कॉफी का वादा भी न तुमसे निभ सका
कैडबरी रैपर के अंदर ही पिघलती रह गयी
फाइलों ने 'दिन' को ऑफिस में रखा फिर देर तक
और ड्योढ़ी पर बिचारी 'शाम' ढलती रह गयी
(सुख़नवर, मार्च-अप्रैल 2013)
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|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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ख़्वाब की थी आँच कैसी, नींद जलती रह गयी
रात फिर से रात भर करवट बदलती रह गयी
बिस्तरे के सिलवटों की देख कर बेचैनियाँ
सिसकियाँ तकिये ने ली, चादर मचलती रह गयी
यूँ तो सब कुछ ठीक ही था बिन तेरे भी, हाँ मगर
दिन खिसकता रह गया बस शब फिसलती रह गयी
रेडियो पर 'तूने ओ रंगीले' जब बजने लगा
केतली में खदबदाकर चाय उबलती रह गयी
रह गईं उलझी किचेन में भीगी ज़ुल्फ़ों की घटा
और छत पर धूप बेबस हाथ मलती रह गयी
चौक पर बाइक ने जब देखा नज़र भर कर उधर
कार की खिड़की में इक चुन्नी संभलती रह गयी
एक कप कॉफी का वादा भी न तुमसे निभ सका
कैडबरी रैपर के अंदर ही पिघलती रह गयी
फाइलों ने 'दिन' को ऑफिस में रखा फिर देर तक
और ड्योढ़ी पर बिचारी 'शाम' ढलती रह गयी
(सुख़नवर, मार्च-अप्रैल 2013)