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|संग्रह=समरकंद में बाबर / सुधीर सक्सेना
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<poem>
देहलीज पर बैठी
स्त्री
नहीं जानती है
कर्क, विषुवत
या मकर रेखा,

दुख की धुरी के इर्दगिर्द
अनादि काल से
घूम रही है वह।

देहलीज पर बैठी
स्त्री
नहीं जानती है
ग्रीनविच टाइम,

घड़ी के काँटों से नहीं,
आह कराह और
उच्छ्वास से
मापती है वह समय

देहलीज पर बैठी
स्त्री
कतई नहीं जानती है
कि कहाँ है
भूमध्य , हिन्द या
अटलान्टिक महासागर,

कई संवत्सरों से
आँसुओं के महासागर में
डूबी हुई है
स्त्री।
</poem>
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