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{{KKRachna
|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र
|संग्रह=त्रिकाल संध्या / भवानीप्रसाद मिश्र
}}
मगर एक कोई था फक्कडफक्कड़,<br>मन का राजा कर्रा - कक्कडकक्कड़;<br>बढा भीड भीड़ को चीर-चार कर<br>बोला ‘ठहरो’ गला फाड कर.<br><br>फाड़ कर।
उसने कहा सधी वाणी में,<br>डूबो चुल्लू भर पानी में;<br>ताकत लडने लड़ने में मत खोऒ<br>खोओचलो भाई चारे को बोऒबोओ!<br><br>
खाली सब मैदान पडा पड़ा है,<br>आफ़त का शैतान खडा खड़ा है,<br>ताकत ऐसे ही मत खोऒखोओ,<br>चलो भाई चारे को बोऒ.बोओ। सुनी मूर्खों ने जब यह वाणीदोनों जैसे पानी-पानीलड़ना छोड़ा अलग हट गएलोग शर्म से गले छट गए। सबकों नाहक लड़ना अखराताकत भूल गई तब नखरागले मिले तब अक्कड़-बक्कड़खत्म हो गया तब धूल में धक्कड़ अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़दोनों मूरख, दोनों अक्खड़।</poem>