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Kavita Kosh से
क्या होगी तेरे पास ख़बर इससे ज़ियादा ।
हो किसी की भी ख़ता सबकी सज़ा पाता हूँ मैं ।
एक दिन वो आलम था हर हरीफ़<ref>प्रतिद्वंद्वी</ref> अपना था
आज अपना साया भी किस क़दर पराया है।
जिसने कुछ नहीं देखा आस्मां पे जा पहुँचा
वो कभी न उड़ पाया जिसने बालो-पर देखा।
तीरगी इतनी ज़बर है हमें एहसास न था
वर्ना पहलू से कोई शम्स उगाया होता।
इन काँपते हाथों की तौफ़ीक़ न कम समझें
क्या जानिए कल इनमें शमशीर नहीं होगी।
अजीब बात है कोई यक़ीं नहीं करता
कि मेरे साथ सुलूक उसका दोस्ताना हुआ।
हर क़दम पर था आस्तां यूँ तो
अपना सर था झुका कहीं भी नहीं।
ख़ता जब अपनी नहीं थी तो अपने बाप की थी
बड़ा अज़ाब था यारों का मेमना होना।
बू हो कि रंग हो न रहेगा किसी को याद
हाँ सोज़ एक फूल था खिलकर बिखर गया।
आह तक़दीर ने क्या दिन हमें दिखलाए हैं
हम कि हर हाल में जीने पे उतर आए हैं।
अँधेरे से न यूँ मायूस हो रौशन जबीं वाले
इसी तारीक शब की कोख से सूरज निकलना है।
हमने एक बार वफ़ा की तो वफ़ा करते रहे
ये अगर जुर्म है यारो तो ख़तावार हैं हम।
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