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मौेसम / श्याम सुन्दर घोष

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ई लरिका रोज-रोज भोरे उठि जाय छै,
खुद तेॅ जगथैं छै सबकेॅ जगाय छै,
तिरफेकन दै छै गाछ-विरिछ भ$ाड़ी झाड़ी के,
चाहै ई आम, वट, पीपल, बबूल।
दूरहें सें चमकै छै छत्तर-मस्तूल।
मौसम नंै नैं मानै छै एकरा सेॅ हार,
अलग-अलग ढंग सें करै छै सिंगार
धरती केॅ करै छै सोहागिन आशीष सेॅ,
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