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गर्मिए लब की तपिश से किसी की रोज़ सुब्ह पाते हैं हयातक़त्ल होते हो जाते हैं हमेशा अब्रुए शब को, अबरुए क़ातिल से हम मुस्कुरा कर वो ये बोले और फिर शरमा गए आपने हमको छुआ तो फिर गए कुछ खिल से हम बस, ! ख़ुदा का शुक्र कह कर, टाल देता है हमें
हाल जब भी पूछते हैं इस दिले-बिस्मिल से हम
आएगा भी या नहीं अब वो सफ़ीना लौटकर बारहा पूछा किये मंझधार और साहिल से हम
कुछ तो है, जो कुछ नहीं तो, फिर ये उठता है सवाल
पास रहकर दूर क्यों हैं दोस्तों दोस्तो मंज़िल से हम मुस्कुराहट आरज़ू-ए-दीद में, बैठे हैं, कैसे जाएंगे ?इक झलक देखे बिना उठकर तेरी महफ़िल से हम देखकर लब पर किसी कीतबस्सुम, खा गए धोका 'रक़ीब'दिल लगा बैठे किसी मगरूर से, संगदिल मग़रूर पत्थर दिल से हम
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