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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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<poem>
उफ़! मिटा पाए न उसकी याद अपने दिल से हम
प्यार करते हैं बहुत जिस हुस्ने-लाहासिल से हम

गर्मिए लब की तपिश से सुब्ह पाते हैं हयात
क़त्ल हो जाते हैं शब को, अबरुए क़ातिल से हम

बस! ख़ुदा का शुक्र कह कर, टाल देता है हमें
हाल जब भी पूछते हैं इस दिले-बिस्मिल से हम

आएगा भी या नहीं अब वो सफ़ीना लौटकर
बारहा पूछा किये मंझधार और साहिल से हम

कुछ तो है, जो कुछ नहीं तो, फिर ये उठता है सवाल
पास रहकर दूर क्यों हैं दोस्तो मंज़िल से हम

आरज़ू-ए-दीद में, बैठे हैं, कैसे जाएंगे ?
इक झलक देखे बिना उठकर तेरी महफ़िल से हम

देखकर लब पर तबस्सुम, खा गए धोका 'रक़ीब'
दिल लगा बैठे किसी मग़रूर पत्थर दिल से हम
</poem>
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