|सारणी=हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
चतुर्थ सर्ग: सगकाँटों
पर मृदु कोमल फूल¸
पावक की ज्वाला पर तूल।
सुई–नोक पर पथ की धूल¸
बनकर रहता था अनुकूल॥1॥
<font size=4>चतुर्थ सर्ग: सगकाँटों</font><br><br>बाहर से करता सम्मान¸ बह अजिया–कर लेता था न। कूटनीति का तना वितान¸ उसके नीचे हिन्दुस्तान॥2॥
पर मृदु कोमल फूल¸ <Br/>पावक की ज्वाला पर तूल। <Br/>सुई–नोक पर पथ की धूल¸ <Br/>बनकर रहता था अनुकूल।।1।। <Br/><Br/>बाहर से करता सम्मान¸ <Br/>बह अजिया–कर लेता था न। <Br/>कूटनीति का तना वितान¸ <Br/>उसके नीचे हिन्दुस्तान।।2।। <Br/><Br/>अकबर कहता था हर बार – <Br/>हिन्दू मजहब पर बलिहार। <Br/>मेरा हिन्दू स्ो से सत्कार; <Br/>मुझसे हिन्दू का उपकार।।3।। <Br/><Br/>उपकार॥3॥ यही मौलवी से भी बात¸ <Br/>कहता उत्तम है इस्लाम। <Br/>करता इसका सदा प्रचार¸ <Br/>मेरा यह निशि–दिन का काम।।4।। <Br/><Br/>काम॥4॥ उसकी यही निराली चाल¸ <Br/>मुसलमान हिन्दू सब काल। <Br/>उस पर रहते सदा प्रसन्न¸ <Br/>कहते उसे सरल महिपाल।।5।। <Br/><Br/>महिपाल॥5॥ कभी तिलक से शोभित भाल¸ <Br/>साफा कभी शीश पर ताज। <Br/>मस्जिद में जाकर सविनोद¸ <Br/>पढ़ता था वह कभी नमाज।।6।। <Br/><Br/>नमाज॥6॥ एक बार की सभा विशाल¸ <Br/>आज सुदिन¸ शुभ–मह¸ शुभ–योग। <Br/>करने आये धर्म–विचार¸ <Br/>दूर दूर से ज्ञानी लोग।।7।। <Br/><Br/>लोग॥7॥ तना गगन पर एक वितान¸ <Br/>नीचे बैठी सुधी–जमात। <Br/>ललित–झाड़ की जगमग ज्योति¸ <Br/>जलती रहती थी दिन–रात।।8।। <Br/><Br/>दिन–रात॥8॥ एक ओर पण्डित–समुदाय¸ <Br/>एक ओर बैठे सरदार। <Br/>एक ओर बैठा भूपाल¸ <Br/>मणि–चौकी पर आसन मार।।9।। <Br/><Br/>मार॥9॥ पण्डित–जन के शास्त्र–विचार¸ <Br/>सुनता सदा लगातार ध्यान। <Br/>हिला हिलाकर शिर सविनोद¸ <Br/>मन्द मन्द करता मुसकान।।10।। <Br/><Br/>मुसकान॥10॥ कभी मौलवी की भी बात¸ <Br/>सुनकर होता मुदित महान््। <Br/>महान। मोह–मग्न हो जाता भूप¸ <Br/>कभी धर्म–मय सुनकर गान।।11।। <Br/><Br/>गान॥11॥ पाकर मानव सहानुभूति¸ <Br/>अपने को जाता है भूल। <Br/>वशीभूत होकर सब काम¸ <Br/>करता है अपने प्रतिकूल।।12।। <Br/><Br/>प्रतिकूल॥12॥ माया बलित सभा के बीच¸ <Br/>यही हो गया सबका हाल। <Br/>जादू का पड़ गया प्रभाव¸ <Br/>सबकी मति बदली तत्काल।।13।। <Br/><Br/>तत्काल॥13॥ एक दिवस सुन सब की बात¸ <Br/>उन पर करके क्षणिक विचार। <Br/>बोल उठा होकर गम्भीर – <Br/>सब धमोर्ं से जन–उद्धार।।14।। <Br/><Br/>जन–उद्धार॥14॥ पर मुझसे भी करके क्लेश¸ <Br/>सुनिए ईश्वर का सन्देश। <Br/>मालिक का पावन आदेश¸ <Br/>उस उपदेशक का उपदेश।।15।। <Br/><Br/>उपदेश॥15॥ प्रभु का संसृति पर अधिकार¸ <Br/>उसका मैं धावन का अविकार।। <Br/><Br/>अविकार॥ यह भव–सागर कठिन अपार¸ <Br/>दीन–इलाही से उद्धार।।16।। <Br/><Br/>उद्धार॥16॥ इसका करता जो विश्वास¸ <Br/>उसको तनिक न जग का त्रास। <Br/>उसकी बुझ जाती है प्यास¸ <Br/>उसके जन्म–मरण का नाश।।17।। <Br/><Br/>नाश॥17॥ इससे बढ़ा सुयश–विस्तार¸ <Br/>दीन–इलाही का सत्कार। <Br/>बुध जन को तब राज–विचार¸ <Br/>सबने किया सभय स्वीकार।।18।। <Br/><Br/>स्वीकार॥18॥ हिन्दू–जनता ने अभिमान¸ <Br/>छोड़ा रामायण का गान। <Br/>दीन–इलाही पर कुबार्न¸ <Br/>मुसलमान से अलग कुरान।।19।। <Br/><Br/>कुरान॥19॥ तनिक न बा`ह्मण–कुल उत्थान¸ <Br/>रही न क्षत्रियपन की आन। <Br/>गया वैश्य–कुल का सम्मान¸ <Br/>शूद्र जाति का नाम–निशान।।20।। <Br/><Br/>नाम–निशान॥20॥ राणा प्रताप से अकबर से¸ <Br/>इस कारण वैर–विरोध बढ़ा। <Br/>करते छल–छल परस्पर थे¸ <Br/>दिन–दिन दोनों का क्रोध बढ़ा।।21।। <Br/><Br/>बढ़ा॥21॥ कूटनीति सुनकर अकबर की¸ <Br/>राणा जो गिनगिना उठा। <Br/>रण करने के लिए शत्रु से¸ <Br/>चेतक भी हिनहिना उठा।।22।। <Br/>उठा॥22॥ <Br/poem>