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|सारणी=हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय
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अष्ठम सर्ग: सगगणपति
गणपति के पावन पांव पूज¸
वाणी–पद को कर नमस्कार।
उस चण्डी को¸ उस दुर्गा को¸
काली–पद को कर नमस्कार॥1॥
<font size=4>अष्ठम सर्ग: सगगणपति</font><br><br>उस कालकूट पीनेवाले के नयन याद कर लाल–लाल। डग–डग ब्रह्माण्ड हिला देता जिसके ताण्डव का ताल–ताल॥2॥
गणपति के पावन पांव पूज¸ <Br/>वाणी–पद को कर नमस्कार। <Br/>उस चण्डी को¸ उस दुर्गा को¸ <Br/>काली–पद को कर नमस्कार।।1।। <Br/><Br/>उस कालकूट पीनेवाले के <Br/>नयन याद कर लाल–लाल। <Br/>डग–डग ब्रह्माण्ड हिला देता <Br/>जिसके ताण्डव का ताल–ताल।।2।। <Br/><Br/>ले महाशक्ति से शक्ति भीख <Br/>व्रत रख वनदेवी रानी का। <Br/>निर्भय होकर लिखता हूं मैं <Br/>ले आशीर्वाद भवानी का।।3।। <Br/><Br/>का॥3॥  मुझको न किसी का भय–बन्धन <Br/>क्या कर सकता संसार अभी। <Br/>मेरी रक्षा करने को जब <Br/>राणा की है तलवार अभी।।4।। <Br/><Br/>अभी॥4॥  मनभर लोहे का कवच पहन¸ <Br/>कर एकलिंग को नमस्कार। <Br/>चल पड़ा वीर¸ चल पड़ी साथ <Br/>जो कुछ सेना थी लघु–अपार।।5।। <Br/><Br/>लघु–अपार॥5॥  घन–घन–घन–घन–घन गरज उठे <Br/>रण–वाद्य सूरमा के आगे। <Br/>जागे पुश्तैनी साहस–बल <Br/>वीरत्व वीर–उर के जागे।।6।। <Br/><Br/>जागे॥6॥  सैनिक राणा के रण जागे <Br/>राणा प्रताप के प्रण जागे। <Br/>जौहर के पावन क्षण जागे <Br/>मेवाड़–देश के व्रण जागे।।7।। <Br/><Br/>जागे॥7॥  जागे शिशोदिया के सपूत <Br/>बापा के वीर–बबर जागे। <Br/>बरछे जागे¸ भाले जागे¸ <Br/>खन–खन तलवार तबर जागे।।8।। <Br/><Br/>जागे॥8॥  कुम्भल गढ़ से चलकर राणा <Br/>हल्दीघाटी पर ठहर गया। <Br/>गिरि अरावली की चोटी पर <Br/>केसरिया–झंडा फहर गया।।9।। <Br/><Br/>गया॥9॥  प्रणवीर अभी आया ही था <Br/>अरि साथ खेलने को होली। <Br/>तब तक पर्वत–पथ से उतरा <Br/>पुंजा ले भीलों की टोली।।10।। <Br/><Br/>टोली॥10॥  भ्ौरव–रव से जिनके आये <Br/>रण के बजते बाजे आये। <Br/>इंगित पर मर मिटनेवाले <Br/>वे राजे–महाराजे आये।।11।। <Br/><Br/>आये॥11॥  सुनकर जय हर–हर सैनिक–रव <Br/>वह अचल अचानक जाग उठा। <Br/>राणा को उर से लगा लिया <Br/>चिर निद्रित जग अनुराग उठा।।12।। <Br/><Br/>उठा॥12॥  नभ की नीली चादर ओढ़े <Br/>युग–युग से गिरिवर सोता था। <Br/>तरू तरू के कोमल पत्तों पर <Br/>मारूत का नर्तन होता था।।13।। <Br/><Br/>था॥13॥  चलते चलते जब थक जाता <Br/>दिनकर करता आराम वहीं। <Br/>अपनी तारक–माला पहने <Br/>हिमकर करता विश्राम वहीं।।14।। <Br/><Br/>वहीं॥14॥  गिरि–गुहा–कन्दरा के भीतर <Br/>अज्ञान–सदृश था अन्धकार। <Br/>बाहर पर्वत का खण्ड–खण्ड <Br/>था ज्ञान–सदृश उज्ज्वल अपार।।15।। <Br/><Br/>अपार॥15॥  वह भी कहता था अम्बर से <Br/>मेरी छाती पर रण होगा। <Br/>जननी–सेवक–उर–शोणित से <Br/>पावन मेरा कण–कण होगा।।16।। <Br/><Br/>होगा॥16॥  पाषाण–हृदय भी पिघल–पिघल <Br/>आंसूं आँसूं बनकर गिरता झर–झर। <Br/>गिरिवर भविष्य पर रोता था <Br/>जग कहता था उसको निझर्र।।17।। <Br/><Br/>निझर्र॥17॥  वह लिखता था चट्टानों पर <Br/>राणा के गुण अभिमान सजल। <Br/>वह सुना रहा था मृदु–स्वर से <Br/>सैनिक को रण के गान सजल।।18।। <Br/><Br/>सजल॥18॥  वह चला चपल निझर्र झर–झर <Br/>वसुधा–उर–ज्वाला खोने को; <Br/>या थके महाराणा–पद को <Br/>पर्वत से उतरा धोने को।।19।। <Br/><Br/>को॥19॥  लघु–लघु लहरों में ताप–विकल <Br/>दिनकर दिन भर मुख धोता था। <Br/>निर्मल निझर्र जल के अन्दर <Br/>हिमकर रजनी भर सोता था।।20।। <Br/><Br/>था॥20॥  राणा पर्वत–छवि देख रहा <Br/>था¸ उन्नत कर अपना भाला। <Br/>थे विटप खड़े पहनाने को <Br/>लेकर मृदु कुसुमों की माला।।21।। <Br/><Br/>माला॥21॥  लाली के साथ निखरती थी <Br/>पल्लव–पल्लव की हरियाली। <Br/>डाली–डाली पर बोल रही <Br/>थी कुहू–कुहू कोयल काली।।22।। <Br/><Br/>काली॥22॥  निझर्र की लहरें चूम–चूम <Br/>फूलों के वन में घूम–घूम। <Br/>मलयानिल बहता मन्द–मन्द <Br/>बौरे आमों में झूम–झूम।।23।। <Br/><Br/>झूम–झूम॥23॥  जब तुहिन–भार से चलता था <Br/>धीरे धीरे मारूत–कुमार। <Br/>तब कुसुम–कुमारी देख–देख <Br/>उस पर हो जाती थी निसार।।24।। <Br/><Br/>निसार॥24॥  उड़–उड़ गुलाब पर बैठ–बैठ <Br/>करते थे मधु का पान मधुप। <Br/>गुन–गुन–गुन–गुन–गुन कर करते <Br/>राणा के यश का गान मधुप।।25।। <Br/><Br/>मधुप॥25॥  लोनी लतिका पर झूल–झूल¸ <Br/>बिखरते कुसुम पराग प्यार। <Br/>हंस–हंसकर कलियां झांक रही <Br/>थीं खोल पंखुरियों के किवार।।26।। <Br/><Br/>किवार॥26॥  तरू–तरू पर बैठे मृदु–स्वर से <Br/>गाते थे स्वागत–गान शकुनि। <Br/>कहते यह ही बलि–वेदी है <Br/>इस पर कर दो बलिदान शकुनि।।27।। <Br/><Br/>शकुनि॥27॥  केसर से निझर्र–फूल लाल <Br/>फूले पलास के फूल लाल। <Br/>तुम भी बैरी–सिर काट–काट <Br/>कर दो शोणित से धूल लाल।।28।। <Br/><Br/>लाल॥28॥  तुम तरजो–तरजो वीर¸ रखो <Br/>अपना गौरव अभिमान यहीं। <Br/>तुम गरजो–गरजो सिंह¸ करो <Br/>रण–चण्डी का आह्वान यहीं।।29।। <Br/><Br/>यहीं॥29॥  खग–रव सुनते ही रोम–रोम <Br/>राणा–तन के फरफरा उठे। <Br/>जरजरा उठे सैनिक अरि पर <Br/>पत्ते–पत्ते थरथरा उठे।।30।। <Br/><Br/>उठे॥30॥  तरू के पत्तों से¸ तिनकों से <Br/>बन गया यहीं पर राजमहल। <Br/>उस राजकुटी के वैभव से <Br/>अरि का सिंहासन गया दहल।।31।। <Br/><Br/>दहल॥31॥  बस गये अचल पर राजपूत¸ <Br/>अपनी–अपनी रख ढाल–प्रबल। <Br/>जय बोल उठे राणा की रख <Br/>बरछे–भाले–करवाल प्रबल।।32।। <Br/><Br/>प्रबल॥32॥  राणा प्रताप की जय बोले <Br/>अपने नरेश की जय बोले। <Br/>भारत–माता की जय बोले <Br/>मेवाड़–देश की जय बोले।।33।। <Br/><Br/>बोले॥33॥  जय एकलिंग¸ जय एकलिंग¸ <Br/>जय प्रलयंकर शंकर हर–हर। <Br/>जय हर–हर गिरि का बोल उठा <Br/>कंकड़–कंकड़¸ पत्थर–पत्थर।।34।। <Br/><Br/>पत्थर–पत्थर॥34॥  देने लगा महाराणा <Br/>दिन–रात समर की शिक्षा। <Br/>फूंक–फूंक फूँक–फूँक मेरी वैरी को <Br/>करने लगा प्रतीक्षा।।35।। <Br/>प्रतीक्षा॥35॥ <Br/poem>
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