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द्वार / प्रेमघन

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<poem>
हाय यहै वह द्वार दिवस निसि भीर भरी जित।
भाँति भाँति के मनुजन की नित रहति इकतृत॥१११॥

एक एक से गुनी, सूर, पंडित, विरक्त जन।
अतिथि, सुहृद, सेवक समूह संग अमित प्रजागन॥११२॥

जहाँ मत्त मातंग नदत झूमत निसि वासर।
धूरि उड़ावत पवन, वही, विधि, वही धरा पर॥११३॥

जहँ चंचल तुरंग नरतत मन मुग्ध बनावत।
जमत, उड़त, ऐंड़त, उछरत पैंजनी बजावत॥११४॥

जहँ योधागन दिखरावत निज कृपा कुशलता।
अस्त्र शस्त्र अरु शारीरिक बहु भाँति प्रबलता॥११५॥

चटकत चटकी डाँड़ कहूँ कोउ भरत पैतरे।
लरत लराई को’ऊ एक एकन सों अभिरे॥११६॥

होत निसाने बाजी कहुँ लै तुपक गुलेलन।
कोऊ सांग बरछीन साधि हँसि करत कुलेलन॥११७॥

करत केलि तहँ नकुल ससक साही अरु मूषक।
वहै रम्य थल हाय आज लखि परत भयानक॥११८॥

नित जा पैं प्रहरी गन गाजत रहे निरन्तर।
वह फाटक सुविशाल सयन करि रह्यो भूमि पर॥११९॥
</poem>
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