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|संग्रह=ऊषा / विजयदान देथा 'बिज्‍जी'
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<poem>
ऊषे !
मैं चिर मौन रहूँ भी तो क्योंकर ?

जब बादल का श्याम हृदय भी ष्
पिघल-पिघल, गल-गल
बरस पड़ता है झरझर!
सुनकर
तृषित चातक की करुण पुकार!

सुन कोकिल की अन्तर-कराह
रस देते हैं उसको रसाल!
सुकुमार सुमनों को देखो
गुनन-गुनन गायन सुनकर ही तो
देते हैं मृदु-मृदु चुम्बन
मृदु आंलिगन
मधुपान करा मधुकर को !

औरों की क्या बात अरे
सहृदय माता भी कब देती है!
अमृतमय जीवन मृदु-दुग्ध स्तन
बिना सुने शिशु का रोदन!
इस जग में कुछ भी असह्यनीय
अरे अति पीड़ामय
तो वह मौन-श्रृंखला ही का बन्धन!

कण-कण में प्रतिबिम्बित!
जो रोम-रोम में अन्तर्हित!
उसको भी रहकर चिर मौन
जब पाना दुर्लभ रे अति दुष्कर!

ऊषे!
मैं चिर मौन रहूँ भी क्योंकर!
सुन कोकिल की अन्तर कराह
रस देते हैं उसको रसाल!
</poem>