भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजयदान देथा 'बिज्‍जी' |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विजयदान देथा 'बिज्‍जी'
|अनुवादक=
|संग्रह=ऊषा / विजयदान देथा 'बिज्‍जी'
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
ऊषे!
मेरे अन्तर-तम में छिप जाओ!

स्वर्ण-विमान पर चढ़कर
जब कामी दिनकर
हो अति कामातुर
तीक्ष्ण रश्मियों के सहस्र भुज फैलाकर
सन्निकट खींच लेता है सत्वर
तुमको.... कर बलात्कार!

फिर बाँहों में भर-भर
करता है आंलिगन जी भरकर!
नश्वर मानव के नश्वर नयन
देख सकें भी तो कैसे
यह अनश्वर निष्ठुर प्रणय मिलन?
पल-पल देकर पीड़ा
उस प्रबल विषमय-सी कामानल का
वह जग को देता है परिचय!
फिर साँझ पड़े
गगन के धुँधले धूमिल वातारण में
कर समाप्त आलिंगन
होकर शिथिल गात
ऊषा का कर परित्याग
छोड़ उसे अम्बर पर
न जाने कहाँ किधर
क्रुर हत्यारे-सा इधर-उधर
अदृश्य हो जाता स्वयं?

मगर तुम सकुचाकर
शरमाकर लज्जित हो
तम में होकर विलिन
चाहती हो अपने को खोना!
पर ऐसा क्यों?
अब भी शिशु की-सी
शुचिता है तुम में
मुझको तो उस में
तनिक भी सन्देह नहीं!
गर अन्धकार ही में मिल जाने की
है प्रबल इच्छा तुम्हारी
तो आओ-आओ री
मेरा सघन अन्तर-तम
करता है प्रतिक्षण
तुम्हारा सुस्वागतम्
लो आओ री..... नर्भय चली आकर
ऊषे!
मेरे अन्तर तम में छिप जाओ!
</poem>