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|रचनाकार=गोपाल सिंह नेपाली
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शंकर की पुरी, चीन ने सेना को उतारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा
हो जाय पराधीन नहीं गंग की धारा
गंगा के किनारों ने शिवालय को पुकारा।
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।
अम्बर के तले हिन्द की दीवार हिमालयसदियों से रहा शांति की मीनार हिमालयअब मांग रहा हिन्द से तलवार हिमालयभारत की तरफ चीन ने है पाँव पसारा।चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा पुकारा।
कह दो कि हिमालय तो क्या पत्थर भी न देंगेलद्दाख की तो बात क्या बंजर भी न देंगेआसाम हमारा है रे! मर कर भी न देंगेहै चीन का लद्दाख तो तिब्बत है हमारा।चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारापुकारा। भारत से तुम्हें प्यार है तो सेना को हटा लोभूटान की सरहद पर बुरी दृष्टि न डालोहै लूटना सिक्किम को तो पेकिंग को संभालोआज़ाद है रहना तो करो घर में गुज़ारा।चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा। '''यह रचना पहले हमें चन्द्र प्रकाश जी (chandraprakash2508@gmail.com) ने भेजी है। यह कविता उन्हें उनकी माँ की एक पुरानी डायरी में हाथ से लिखी हुई मिली है। उसमें कवि का नाम भी गोपाल सिंह नेपाली ही लिखा हुआ है। लेकिन इस अधूरी कविता को प्रभात कुमार माथुर (mathur.prabhat@gmail.com) ने पूरी की है, प्रभात कुमार माथुर के अनुसार "वर्ष 1962 में चीनी आक्रमण के समय तत्कालीन जनसंघ के मुखपत्र पांचजन्य में छपी थी"।'''</poem>