भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
1,257 bytes removed,
21:30, 21 सितम्बर 2016
{{KKCatKavita}}
<poem>
स्वतंत्र झम्म से बरस जाती हो तुम हम पर फिकरे कसने के लिए न बरसा करो तुम्हें मेरी कसम! मेरी अपनी पंखुरियाँ मुझसे अलग हो निगाहों से ही साबुत हजम कर जाने के लिए जाती हैं दूर से भोंडे संदेशे भेजे जाने के लिए अकेला रहने को बालो में झांकती सफेदी भूल विवश मुझे यह कहने के लिए माना कि हो तप्त “दिल तो बच्चा है जी ”देखता हूँ तुम्हारी राह एकटक और मन मर्जी ना चलने पर गिना करता हूँ एक एक पल यहाँ तक कि तेज़ाब से हमारी चमड़ी झुलसाने के लिए तुम्हारी आमद का
अच्छा है मुगालता रखना खूबसूरत दुनिया के शहंशाह होने का पर क्या ख्वाबो में ही सच कहता हूँ नहीं?उत्कंठा तुम्हारे असीमित वेगमय प्रवाह की
यदि नहीं पर्याप्त हैं कुछ बूँदें तो आक्रोश नहीं हाँ कुछ बूँदें नफरत नहीं मुझमे मेरे होने के तुमपर तरस अहसास के साथ अबसे यही दुआ करुँगी लिए क्यों कि और और तीव्र हो तुम्हारी स्मरन ,दृश्य और श्रवण शक्ति कि गूंजती रहे हर पल तुम्हारे कानो में बिन सिर्फ टंकार उन हृदय विदारक चीखो की मै "मै" कहाँ बस जाए एकही तस्वीर तुम्हारी आँखों में उन चीथड़े रह गयी जिन्दा लाशो की सो ऐ बाबरी नेह भरी बदरिया!हो सके बरसा तो देखना दर्पण करो आज फिर पर तनिक आहिस्ते से एक बार क्या ये वही कुलदीपक अपनी जन्मदात्री का गौरव घोंट साँसे गर्भ में ही हमारी किये गए व्रत और मनौतियाँ जिसके लिए अचरज है कि नहीं भक्षण करते चील और कव्वे भी कभी जीवित प्राणियों का फिर तुम...?और हमेशा की तरह आज भी पूर्ण स्वतंत्र हो तुम शेष रह गए इन रिक्त स्थानों को अपनी मर्जी से भरने के लिए तुम्हे मेरी कसम
</poem>