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Kavita Kosh से
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|रचनाकार=श्रीकांत वर्मा
|संग्रह=जलसाघर / श्रीकांत वर्मा
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<poem>
-यही सोचते हुए गुज़र रहा हूँ मैं कि गुज़र गई
बगल से
::::::गोली दनाक से ।
राहजनी हो या क्रान्ति ? जो भी हो, मुझको
गुज़रना ही रहा है
::::::::शेष ।
देश
:::::::नक्शे में
देखता रहा हूँ हर साल नक्शा बदलता है
कच्छ हो या चीन
:::::::तब तक
दूसरी गोली दनाक से ।
हद हो गयी, मुझको कहना ही पड़ेगा, हद कहीं नहीं
चले आओ अंदर
:::::::मुझको उघाड़कर
चूतड़ पर बेंत मार
चेहरे पर लिख दो यह गधा है। तब भी जो जहाँ
है, वहीं बँधा है
:::::अपनी बेहयाई को
सँवारता हुआ चौदह पैसे की कंघी से