|सारणी=ईशावास्य उपनिषद / मृदुल कीर्ती
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ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।<br>
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥<br>
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<span class="mantra_translation">
भोगो जगत निष्काम वृति से, त्यक्तेन प्रवृति हो<br>
यह धन किसी का भी नही अथ लेश न आसक्ति हो॥ [१]<br><br>
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:::कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।<br>
:::एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥<br>
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:::निष्काम निःस्पृह भावना से कर्म हमसे हों यथा,<br>
:::कर्म बन्धन मुक्ति का, कोई अन्य मग नहीं अन्यथा॥ [२]<br><br>
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असुर्या नाम ते लोका अंधेन तमसा वृताः।<br>
ता स्ते प्रेत्याभिगछन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥<br>
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जो भोग विषयासक्त, वे बहु जनम लेते, निम्न हैं।<br>
पुनरपि जनम मरणं के दुखः से दुखित वे अतिशय रहें,<br>
जग, जन्म, दुखः, दारुण, व्यथा, व्याकुल, व्यथित होकर सहें॥ [३] <br><br> </span> <span class="upnishad_mantra">:::अनेजदैकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।<br>:::तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥<br>
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:::स्थित स्वयं गातिमान का, करे अतिक्रमण अद्भुत महे,<br>
:::अज्ञेय देवों से, वायु वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [४]<br><br>
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तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।<br>
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः ॥५॥<br>
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