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<poem>
कोई तो ऋतु आए ऐसी
जो फूलों को फिर महका दे।

फैली चारों ओर विरसता
कभी न कोई खुल कर हँसता
कितनी है घनघोर विवशता
कुछ तो सुलगे ऐसा जो
इस ठंडे लोहे को दहका दे।

उब गए अभिनय दुहराते
बिना रीढ़ के दौड़ लगाते
काग़ज़ की नैया तैराते
कोई तो तोड़े पिंजरे को
जो हर पंछी को चहका दे।

हम नौकर अपने शरीर के
हम फकीर अब तक लकीर के
निकल न पाए तिमिर चीर के
निकले कोई चीख गले से
जो सन्नाटे को तड़का दे।।

कोई तो ऋतु आए ऐसी
जो फूलों को फिर महका दे।
</poem>
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