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Kavita Kosh से
समा जाते हैं इस कमरे के भीतर ही।
हम जो छोटे हैं आखिर आख़िर हैं कितने बड़े !
बाहर गुजरती गुज़रती है एक टैक्सी
प्रेतों से भरी।