भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दीप बनकर जलो / डी. एम. मिश्र

1,064 bytes added, 17:41, 1 जनवरी 2017
{{KKCatKavita}}
<poem>
दीप बनकर जलो, रात सारी जलो
तम पियो ग़म सहो रोशनी के लिए
सूर्य भी अनवरत साथ रहता नहीं
चाँद भी रोज़ आँगन में उगता नहीं
जुगनुओं का भी कोई भरोसा नहीं
दीप हर वक़्त है हर किसी के लिए
 
सूर्य के चाँद के फासले कम न हों
जब ज़रूरत हमें आ पड़े तब न हों
कौन है सिर्फ जलता इशारों पे जो
मीत की, शत्रु की भी खुशी के लिए
 
सूर्य के, चाँद को पूजते लोग हैं
जो न वश में उसे चाहते लोग हैं
दीप-सा कोई त्यागी, तपस्वी नहीं
काट तम जो जले आरती के लिए
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,393
edits