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बिनती / अरुण कुमार निगम

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<Poem>
बेटा दुलरू बनिस बिदेसी, जब पढ़-लिख डारिस ज्यादा
रद्दा देखत-देखत मरगिन, दुलरू के दादी - दादा।

सपनावत होही जब वो हर, तब कइसे लागत होही
कभू ददा-दाई के सुरता, का ओला आवत होही।

कोरा-मा दाई के खेलिस, बाढ़िस बइठ मोर काँधा
काँधा देवइया के सुरता, मा फूटत हे मन-बाँधा।

नान्हेंपन के खई-खजानी, आमा डार झुलै झूला
कोन जनी सुरता होही का, हमर मयारू दुलरू ला।

गोबर लीपे अँगना - खोली, तुलसी के पावन चौंरा
छानी-मा फुदकत गौरैया, बखरी-मा गावत भौंरा।

छानी ऊपर कोंहड़ा-रखिया, बारी - मा झूलत खीरा
हमर मुहाटी मया - दया ला, देख नहीं खुसरिस पीरा।

ऊसर मूसर जाँता जतरी, ढेंकी माढ़य परछी मा
महूँ चलाहूँ ढेंकी कहिके, धान लाय वो चुरकी मा।

चुरपुर अम्मट लागय तबले, चुचुर चुचुर चुचुरै लाटा
छोड़ खिलौना डब्बा - डब्बी अउ खेलै लकड़ी-फाटा।

गाँव मुहल्ला के लइका सँग, खेलै वो धुर्रा-माटी
गिल्ली-डंडा छुवा-छुवौवल, रेस-टीप भौंरा-बाँटी।

नान-नान कतको ठन सुरता, झूलत हे आँखी-आँखी
उड़के भेंट करी आ जातेंव, मोर कहूँ होतिस पाँखी।

ना कोन्हों संदेसा आइस, ना कोन्हों चिठिया पाती
जीयत जागत मा आ जातिस, हमर जुडा जातिस छाती।

पाँच बछर के बेर ढरक गे, लगे अगोरा जिवलेवा
कभू हमर बिनती सुन लेही, करत हवन ठाकुर सेवा।
</poem>
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