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{{KKRachna
|रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा
|संग्रह=कविता के विरुद्ध / योगेंद्र कृष्णा
}}
<poem>
गड्डमड्ड हो चले हैं सारे दृश्य
इस शहर के या फिर
यह हमारा दृष्टि-दोष तो नहीं...
काली पोशाक और काले चश्मे में
हाथ में पत्थर उठाए
आतंकवादी सा दिखता
तेज रफ्तार भागता वह आदमी
दरअसल कोई आतंकवादी नहीं
बल्कि आतंक भरे माहौल से
मुक्त होने की कोशिश करता
मामूली सा एक खौफजदा आदमी है
और वो देखिए
उसके पीछे
साफ-शफ्फाफ लिबास में
बहुत आत्मविश्वास से कदम बढ़ाता
वह आदमी दरअसल इस शहर का
कोई शरीफ सम्मानित आदमी नहीं
और उसके आगे-पीछे
खाकी वर्दी में अपने हाथों में
बंदूकें संभाले लोग भी
वो नहीं जो आप समझ रहे
वे शहर की सुरक्षा में तैनात कोई तंत्र नहीं
किसी के इशारे पर इस्तेमाल होने वाले यंत्र हैं...
अपनी कार में बैठे
उस शरीफ आदमी को
ज़रा गौर से देखिए
मध्यवर्गीय सोच और
उच्चवर्गीय सपनों के बीच
हवा में डोल रहा
समाज में अपनी इज्जत का मारा
लहूलुहान और बदहाल इस आदमी का चेहरा
अपने देश के नक़्शे से कितना बेमेल दिखता है
अब इसी आदमी को देखने में
मत उलझे रह जाइए
कुछ ही दूरी पर
ताबड़तोड़ चल रही गोलियों की
आवाज़ भी तो सुनिए...
केवल सुनिए
अभी कुछ बोलिए मत
सीधे घर चले जाइए
कुछ दिन बाद ही
पता चलेगा आपको
कि जो मारे गए वो कोई मवाली
या देशद्रोही नहीं थे
बहुत कोशिश के बाद भी
वे नहीं छोड़ पाए थे
सच को सच कहने की
अपनी बेहद बुरी लत को
हमारे देश के नक़्शे में
जो रेखाएं कुछ रंगीन-सी दिखती हैं
वो इन्हीं के खून से उकेरे गए
आम आदमी के मामूली सपने हैं...
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|रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा
|संग्रह=कविता के विरुद्ध / योगेंद्र कृष्णा
}}
<poem>
गड्डमड्ड हो चले हैं सारे दृश्य
इस शहर के या फिर
यह हमारा दृष्टि-दोष तो नहीं...
काली पोशाक और काले चश्मे में
हाथ में पत्थर उठाए
आतंकवादी सा दिखता
तेज रफ्तार भागता वह आदमी
दरअसल कोई आतंकवादी नहीं
बल्कि आतंक भरे माहौल से
मुक्त होने की कोशिश करता
मामूली सा एक खौफजदा आदमी है
और वो देखिए
उसके पीछे
साफ-शफ्फाफ लिबास में
बहुत आत्मविश्वास से कदम बढ़ाता
वह आदमी दरअसल इस शहर का
कोई शरीफ सम्मानित आदमी नहीं
और उसके आगे-पीछे
खाकी वर्दी में अपने हाथों में
बंदूकें संभाले लोग भी
वो नहीं जो आप समझ रहे
वे शहर की सुरक्षा में तैनात कोई तंत्र नहीं
किसी के इशारे पर इस्तेमाल होने वाले यंत्र हैं...
अपनी कार में बैठे
उस शरीफ आदमी को
ज़रा गौर से देखिए
मध्यवर्गीय सोच और
उच्चवर्गीय सपनों के बीच
हवा में डोल रहा
समाज में अपनी इज्जत का मारा
लहूलुहान और बदहाल इस आदमी का चेहरा
अपने देश के नक़्शे से कितना बेमेल दिखता है
अब इसी आदमी को देखने में
मत उलझे रह जाइए
कुछ ही दूरी पर
ताबड़तोड़ चल रही गोलियों की
आवाज़ भी तो सुनिए...
केवल सुनिए
अभी कुछ बोलिए मत
सीधे घर चले जाइए
कुछ दिन बाद ही
पता चलेगा आपको
कि जो मारे गए वो कोई मवाली
या देशद्रोही नहीं थे
बहुत कोशिश के बाद भी
वे नहीं छोड़ पाए थे
सच को सच कहने की
अपनी बेहद बुरी लत को
हमारे देश के नक़्शे में
जो रेखाएं कुछ रंगीन-सी दिखती हैं
वो इन्हीं के खून से उकेरे गए
आम आदमी के मामूली सपने हैं...