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|रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा
|संग्रह=कविता के विरुद्ध / योगेंद्र कृष्णा
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<poem>
मैं जंगल पहाड़ और नदी होना चाहता हूं
मैं चिड़िया हवा और आसमान होना चाहता हूं
मैं इस धरती पर सभ्यता का
अवसान होना चाहता हूं

तुम सभ्य सुशील और
दुनिया की नजरों में महान होना चाहते हो
घर गृहस्थी और दुनियावी व्यवहार में
एक निपुण इंसान होना चाहते हो

मैं इन सब से बहुत दूर
सभ्यता के उस पार बसा
आदिम वह गांव होना चाहता हूं

जहां की आपसदारी
का रंग खून-सा नहीं
नदी के नमकीन पानी-सा
हवा की अदृश्य रवानी-सा लरजता हो

जहां की नदियां और हवाएं
अपनी स्वाभाविक गति और प्रवाह में
हमारी सच्ची खुशहाली के गीत रचती हों

जहां खेतों में अपनी मर्जी से
काम कर रहे आदमी पर
उसकी बाजू में खड़े पहाड़ और
पास ही बहती नदी को पूरा भरोसा हो

जहां आकाश छूती अट्टालिकाएं
रफ़्तार में ऊंचाई की ओर बढ़ते हमारे कदम
हमारी आत्महत्या की वजहें नहीं हों

जहां जंगल और पहाड़ों पर
नदियों और घाटियों में
पेड़ पक्षियों पानी और हवा
के लिए जगह हो

पेड़ों पर बारिश की बूंदों को भी
सूरज की रौशनी का इंतजार हो जहां

हमारे शब्दों को लय और संगति का
रौशनी को अंधेरों का
पूर्णता को खाली हो जाने का
इंतजार हो जहां

मैं सभ्यता के उस पार
वह अधूरा अनगढ़ गांव होना चाहता हूं
मैं चिड़िया हवा और आसमान होना चाहता हूं...
मैं धरती पर सभ्यता का
अवसान होना चाहता हूं