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नारी तू जगजननी है,जगदात्री है,<br> तू दुर्गा है ,तू काली है,<br> तुझमें असीम शक्ति भंडार,<br> फ़िर क्यों इतनी असहाय, निरूपाय,<br> याद कर अपने अतीत को,<br> तोड.कर रूढियों-<br> बंधनों एवं परम्पराओं को.<br> आंख खोल कर देख,<br> दुनिया का नक्शा ,<br> कुछ सीख ले,<br> वर्ना पछ्तायेगी,<br> तू सदियों पीछे,<br> पहुंचा दी जायेगी ।<br> तू क्यों पुरूष के हाथ की,<br> कठपुतली बन शोषित होती है?<br> तू दुर्गा बन, तू महालक्ष्मी बन<br> तू क्यों भोग्या समर्पिता बनती है?<br> यह पुरूष स्वयं में कुछ भी नहीं,<br> सब तूने ही है दिया उसे,<br> वही तुझे आज शोषित कर,<br> अन्याय और अत्याचार कर,<br> तुझे विवश करता है,<br> अस्मिता बेचने के लिए,<br> और तू निर्बल बन,<br> घुटने टेक देती है ।<br> क्यों???<br> क्या तू इतनी निर्बल है?<br> अगर ऎसा है-<br> तो घर में ही बैठो,<br> बाहर निकलने की-<br> जरूरत नहीं,<br> पर यह मत भूलो कि-<br> घर में भी तेरा शोषण होगा ही<br> फर्क होगा सिर्फ़ ,<br> हथियारों के इस्तेमाल में ।<br> तूने इतने त्याग- कष्ट सहे हैं-<br> किसके लिए?<br> अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की,<br> रक्षा के लिए,<br> या<br> दूसरो के लिए?<br> सोच ले तू कहां है?<br> सब कुछ देकर,<br> तेरे पास अपना,<br> क्या बचा है? <br> कुछ पाने के लिए संघर्ष कर ।<br> भौतिक सुखों को त्याग कर,<br> नर-पाश्विकता से जूझ कर,<br> स्वयं अपने पथ का निर्माण कर,<br> अपनी योग्यता से आगे बढ. ।<br> मत सह पुरूष के अत्याचार,<br> द्ढ. संकल्प लेकर,<br> बढ. जा जीवन पथ पर,<br> निराश न हो,<br> घबरा कर कर्म पथ से,<br> विचलित न हो,<br> तू अडिग रह, अटल रह,<br> अपने लक्ष्य पर,<br> तेरी विजय निश्चित है ।<br> तू अपनी "पहचान" को,<br> विवशता का रूप न दे,<br> वर्ना नर भेडि़ए तुझे,<br> समूचा ही निगल जाएंगे ।<br> खोकर अपनी अस्मिता को,<br> कुछ पा लेना ,<br> जीवन की सार्थकता नहीं,<br> आत्म ग्लानि तुझे,<br> नर्काग्नि में जलायेगी ।<br> इसलिए तू सजग हो जा,<br> तू इन्दिरा ,गार्गी, मैत्रेयी,<br> विजय लक्ष्मी बन,<br> कर्म में प्रवत्त हो,<br> अपने लक्ष्य तक पहुंच <br> पुरूष के पशु को पराजित कर,<br> स्वयं की महत्ता उदघाटित कर,<br> इसी में तेरे जीवन की,<br> सार्थकता है,<br> और<br> जीवन की महान उपलब्धि भी<br>