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Kavita Kosh से
हमारे इस शहर में
जबतक कि मैं
तिनके-तिनके सहेजी अनगढ़ एक दुनिया
जबतक कि
एक फूल से दूसरे फूल तक
घिसट रही होती है
एक और सुबह की तलाश में
और जबतक कि मैं
रिस-रिस कर बह जाता है शब्दों से पानी
और सुबह तक
सूखे पत्तों की तरह बजते हैं शब्द
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