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{{KKRachna
|रचनाकार=रति सक्सेना
}}
जब भी मेरा आसमान
मेरी हथेली में भिंच
चिपचिपाने लगता है
मेरा आसपास
अनजाना बन मंडराने लगता है
मैं भागती हूँ
रसोई की पनाह में
कट-कट कटती जाती हैं
लौकी, गाजर, भिंडियाँ
बिना किसी शिकायत के
फिर चढ़ जाती हैं आग पर
मेरी ऐवज
मैं फिर से तैयार हो जाती हूँ
परोसी जाने के लिए
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|रचनाकार=रति सक्सेना
}}
जब भी मेरा आसमान
मेरी हथेली में भिंच
चिपचिपाने लगता है
मेरा आसपास
अनजाना बन मंडराने लगता है
मैं भागती हूँ
रसोई की पनाह में
कट-कट कटती जाती हैं
लौकी, गाजर, भिंडियाँ
बिना किसी शिकायत के
फिर चढ़ जाती हैं आग पर
मेरी ऐवज
मैं फिर से तैयार हो जाती हूँ
परोसी जाने के लिए
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