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कारँवा गुज़र गया / गोपालदास "नीरज" का नाम बदलकर कारवां गुज़र गया / गोपालदास "नीरज" कर दिया गया है: ना
लेखक: [[गोपालदास "नीरज"]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"]]|संग्रह=}}<poem>स्वप्न झरे फूल से,मीत चुभे शूल से,लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहेकारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,गीत अश्क़ बन गए,छंद हो दफ़न गए,साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,और हम झुके-झुके,मोड़ पर रुके-रुकेउम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहेकारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
स्वप्न झरे क्या शबाब था कि फूल से-फूल प्यार कर उठा,<br>मीत चुभे शूल सेक्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठाइस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,एक दिन मगर यहाँ,ऐसी कुछ हवा चली,<br>लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल सेगयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,<br>और हम खड़ेखड़े बहार लुटे-लुटे,वक्त से पिटे-पिटे,साँस की शराब का खुमार देखते रहे।<br>रहेकारवाँ कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!<br><br>रहे।
नींद भी खुली न थी हाथ थे मिले कि हाय धूप ढल गईजुल्फ चाँद की सँवार दूँ,<br>पाँव जब तलक उठे होंठ थे खुले कि ज़िन्दगी फिसल गईहर बहार को पुकार दूँ,<br>पातपात झर गये दर्द था दिया गया कि शाख़शाख़ जल गईहर दुखी को प्यार दूँ,<br>चाह तो निकल सकी न, और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उमर निकल गईउतार दूँ,<br>गीत अश्क बन गएहो सका न कुछ मगर,<br>छंद हो दफन गएशाम बन गई सहर,<br>साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन वह उठी लहर कि दह गयेकिले बिखर-बिखर,<br>और हम झुकेझुकेडरे-डरे,<br>मोड़ पर रुकेरुके<br>नीर नयन में भरे,उम्र के चढ़ाव का उतार ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।<br>रहेकारवाँ कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।<br><br>रहे!
क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा,<br>क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा<br>is taraf jamin aur asman udhar utha,<br>थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,<br>एक दिन मगर यहाँ,<br>ऐसी कुछ हवा चली,<br>लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,<br>और हम लुटेलुटे,<br>वक्त से पिटेपिटे,<br>साँस की शराब का खुमार देखते रहे।<br>कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।<br><br> हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,<br>होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,<br>दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,<br>और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,<br>हो सका न कुछ मगर,<br>शाम बन गई सहर,<br>वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,<br>और हम डरेडरे,<br>नीर नयन में भरे,<br>ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।<br>कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!<br><br> माँग भर चली कि एक, जब नई -नई किरन,<br>ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरनचरण-चरण,<br>शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,<br>गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन -नयन,<br>पर तभी ज़हर भरी,<br>गाज ग़ाज एक वह गिरी,<br>पुँछ पुंछ गया सिंदूर तारतार तार-तार हुई चूनरी,<br>और हम अजान से,<br>दूर के मकान से,<br>पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।<br>कारवाँ कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।<br><br> -- यह कविता deepak द्वारा कविता कोश में डाली गयी है।<br><br/poem>
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