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13:17, 10 अप्रैल 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुमार सौरभ
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<poem>
ज्ञान को गुरू गुंडई से मुक्त करिये
गुरूजी बाहर निकलिए हमसे मिलिए !
बंद कमरे में किये जाते हैं सारे फैसले
बंद कमरे में हमारी तय होती जिंदगी
घुट रहा दम हवा दीजै धूप दीजै
खिड़कियों को खुली रखें सभी देखें
यह सब अकेले आप की जायदाद है क्या ?
इसमें हम सब का भी हिस्सा तय करिए।
जानता हूँ मृत्यु मेरी विश्वविद्यालय के प्रांगण
सूचनापट्ट थाम होगी
अब मेरी गुस्ताख़ियों पर दंड धरिए
पर गुरूजी बाद मेरे यह तमाशा बंद करिए।
××××××××××××××××××××
व्यर्थ मैं था हो चला भावुक गुरूजी
हूँ नहीं कमजोर कायर तोड़ देंगे
या दया हो आपकी तो छोड़ देंगे।
थूकता हूँ आपके हर दंभ पर मैं
आपके अपडेट और स्तंभ पर मैं
आपकी बेइमानियों और क्रूरता पर
आपके देवत्व महती शूरता पर।
बिना बदले यह व्यवस्था चैन मुझको कहाँ कहिए
लड़ूँगा लड़ता रहूँगा आइए अब मुझसे भिड़िए
है भलाई आपकी भी छुपी इसमें
छोड़िए यह खुराफाती मत अकड़िए।
ज्ञान को गुरू गुंडई से मुक्त करिये
गुरूजी बाहर निकलिए हमसे मिलिए !
</poem>