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{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसीदास
|संग्रह=रामचरितमानस / तुलसीदास
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|सारणी=रामचरितमानस / तुलसीदास
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चौ०-{{KKCatAwadhiRachna}}<poem>भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥<br>डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥१॥जैसें॥<br>सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥<br>कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥२॥हारी॥<br>श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥<br>नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥३॥साने॥<br>दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना॥<br>देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥४॥रनधीरा॥<br>दो०दो0-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।<br>पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥२५१॥दमनीय॥251॥<br><br>चौ०-कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥<br>रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥१॥छड़ाई॥<br>अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥<br>तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥२॥बिबाहू॥<br>सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥<br>जौं जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥३॥हँसाई॥<br>जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥<br>माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥४॥रिसौंहें॥<br>दो०दो0-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।<br>नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥२५२॥प्रमान॥252॥<br><br>चौ०-रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥<br>कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥१॥जानी॥<br>सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥<br>जौं जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥२॥उठावौं॥<br>काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥<br>तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥३॥पुराना॥<br>नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥<br>कमल नाल जिमि चाप चाफ चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥४॥धावौं॥<br>दो०दो0-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।<br>जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥२५३॥भाथ॥253॥<br><br>चौ०-लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥<br>सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥१॥ सकुचाने॥<br>गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥<br>सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥२॥बैठारे॥<br>बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥<br>उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥३॥परितापा॥<br>सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥<br>ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥४॥लजाएँ॥<br>दो०दो0-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।<br>बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥२५४॥भृंग॥254॥<br><br>चौ०-नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥<br>मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥१॥लुकाने॥<br>भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥<br>गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा॥२॥मागा॥<br>सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥<br>चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥३॥सुखारी॥<br>बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥<br>तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं॥४॥गोसाईं॥<br>दो०दो0-रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।<br>सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥२५५॥बिलखाइ॥255॥<br><br>चौ०-सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेउ जेठ कहावत हितू हमारे॥<br>कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥१॥नाहीं॥<br>रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥<br>सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥२॥लेहीं॥<br>भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥<br>बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥३॥रानी॥<br>कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥<br>रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥४॥भागा॥<br>दो०दो0-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।<br>महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥२५६॥खर्ब॥256॥<br><br>चौ०-काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे॥<br>देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष राम रामु सुनु रानी॥१॥रानी॥<br>सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥<br>तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥२॥तेही॥<br>मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥<br>करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥३॥गरुआई॥<br>गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥<br>बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥४॥थोरी॥<br>दो०दो0-देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर॥<br>भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥२५७॥सरीर॥257॥<br><br>चौ०-नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥<br>अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥१॥हानी॥<br>सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥<br>कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥२॥किसोरा॥<br>बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥<br>सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥३॥तोरी॥<br>निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥<br>अति परिताप सीय मन माहीं। माही। लव निमेष जुग सब सय सम जाहीं॥४॥जाहीं॥<br>दो०दो0-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।<br>खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥२५८॥डोल॥258॥<br><br>चौ०-गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥<br>लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना॥१॥सोना॥<br>सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी॥<br>तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥२॥राचा॥<br>तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि करिहिं मोहि रघुबर कै दासी॥<br>जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥३॥संहेहू॥<br>प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥<br>सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। कैसे। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥४॥जैसे॥<br>दो०दो0-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।<br>पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥२५९॥ब्रह्मांडु॥259॥<br><br>चौ०-दिसिकुंजरहु दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥<br>रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥१॥मोरा॥<br>चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥<br>सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥२॥अभिमानू॥<br>भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥<br>सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥३॥दावा॥<br>संभुचाप बड़ बड बोहितु पाई। चढ़े चढे जाइ सब संगु बनाई॥<br>राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू॥४॥कड़हारू॥<br>दो०दो0-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।<br>चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥२६०॥बिसेषि॥260॥<br><br>चौ०-देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही॥<br>तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥१॥तड़ागा॥<br>का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥<br>अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥२॥बिसेषी॥<br>गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥<br>दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥३॥भयऊ॥<br>लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥<br>तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥४॥कठोरा॥<br>छं०छं0-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।<br>चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥<br>सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।<br>कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं॥उचारही॥<br>सो०सो0-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।<br>बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस॥२६१॥बस॥261॥<br><br>चौ०-प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥<br>कौसिकरुप कोसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥१॥सुहावन॥<br>रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी॥<br>बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥२॥गाना॥<br>ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा॥<br>बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला॥३॥रसाला॥<br>रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी॥<br>मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी॥४॥भारी॥<br>दो०दो0-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।<br>करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥२६२॥चीर॥262॥<br><br>चौ०-झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥<br>बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥१॥गाए॥<br>सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥<br>जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई॥२॥पाई॥<br>श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥<br>सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥३॥स्वाती॥<br>रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥<br>सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥४॥कीन्हा॥<br>दो०दो0-संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार।<br>गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार॥२६३॥अपार॥263॥<br>–*–*–<br>सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥<br>कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥१॥छाई॥<br>तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥<br>जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी॥२॥अवरेखी॥<br>चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥<br>सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥३॥जाई॥<br>सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥<br>गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥४॥मेली॥<br>सो०सो0-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।<br>सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥२६४॥कुमुदगन॥264॥ <br>पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥<br>सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥१॥असीसा॥<br>नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं॥<br>जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं॥२॥उच्चरहीं॥<br>महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥<br>करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥३॥बिसारी॥<br>सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥<br>सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥४॥भीता॥<br>दो०दो0-गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।<br>मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥२६५॥जानि॥265॥<br>–*–*–<br>तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥<br>उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥१॥लागे॥<br>लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥<br>तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥२॥बरई॥<br>जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥<br>साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥३॥लजानी॥<br>बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥<br>सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई॥४॥लाई॥<br>दो०दो0-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।<br>लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥२६६॥होहु॥266॥<br>–*–*–<br>बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥<br>जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥१॥सिवद्रोही॥<br>लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥<br>हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥२॥नरनाहा॥<br>कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥<br>रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥३॥माहीं॥<br>रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥<br>भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥४॥सकहीं॥<br>दो०दो0-अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।<br>मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥२६७॥चोप॥267॥<br>–*–*–<br>खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥<br>तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा॥१॥पतंगा॥<br>देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥<br>गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥२॥बिराजा॥<br>सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा॥<br>भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥३॥रिसाते॥<br>बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥<br>कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥४॥काँधें॥<br>दो०दो0-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप।<br>धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥२६८॥भूप॥268॥<br>–*–*–<br>देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥<br>पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥१॥प्रनामा॥<br>जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥<br>जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥२॥करावा॥<br>आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं॥<br>बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥३॥भाई॥<br>रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥<br>रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥४॥मोचन॥<br>दो०दो0-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर॥<br>पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥२६९॥सरीर॥269॥<br>–*–*–<br>समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥<br>सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥१॥डारे॥<br>अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥<br>बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥२॥राजू॥<br>अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥<br>सुर मुनि नाग नगर नर नारी॥सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥३॥भारी॥<br>मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥<br>भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥४॥बीता॥<br>दो०दो0-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।<br>हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥२७०॥श्रीरघुबीरु॥270॥ <br>मासपारायण, नवाँ विश्राम<br>–*–*–<br>नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥<br>आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥१॥कोही॥<br>सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥<br>सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥२॥मोरा॥<br>सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥<br>सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥३॥अपमाने॥<br>बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥<br>एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥४॥भृगुकुलकेतू॥<br>दो०दो0-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार॥<br>धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥२७१॥संसार॥271॥<br>–*–*–<br>लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥<br>का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें॥१॥भोरें॥<br>छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।<br>बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥२॥मोरा॥<br>बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥<br>बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥३॥द्रोही॥<br>भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥<br>सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥४॥महीपकुमारा॥<br>दो०दो0-मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।<br>गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥२७२॥घोर॥272॥<br>–*–*–<br>बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥<br>पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥१॥पहारू॥<br>इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥<br>देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥२॥अभिमाना॥<br>भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥<br>सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥३॥सुराई॥<br>बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥<br>कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥४॥कुठारा॥<br>दो०दो0-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।<br>सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥२७३॥गभीर॥273॥<br>–*–*–<br>कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥<br>भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥१॥असंकू॥<br>काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥<br>तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥२॥हमारा॥<br>लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥<br>अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥३॥बरनी॥<br>नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥<br>बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥४॥सोभा॥<br>दो०दो0-सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।<br>बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥२७४॥प्रतापु॥274॥<br>–*–*–<br>तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥<br>सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥१॥घोरा॥<br>अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥<br>बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥२॥साँचा॥<br>कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥<br>खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥३॥गुरुद्रोही॥<br>उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥<br>न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥४॥थोरें॥<br>दो०दो0-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।<br>अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥२७५॥अबूझ॥275॥<br>–*–*–<br>कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥<br>माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥१॥जीकें॥<br>सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा॥<br>अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥२॥खोली॥<br>सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥<br>भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही॥३॥नृपद्रोही॥<br>मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े॥<br>अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥४॥नेवारे॥<br>दो०दो0-लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।<br>बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥२७६॥रघुकुलभानु॥276॥<br>–*–*–<br>नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥<br>जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥१॥अयाना॥<br>जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥<br>करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥२॥ग्यानी॥<br>राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने॥<br>हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी॥३॥पापी॥<br>गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं॥<br>सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मौहीं॥४॥मौहीं॥<br>दो०दो0-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।<br>जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥२७७॥प्रतिकूल॥277॥<br>–*–*–<br>मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥<br>टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥१॥पिराने॥<br>जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥<br>बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥२॥नाहीं॥<br>थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥<br>भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी॥३॥हानी॥<br>बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥<br>मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं॥४॥जैसैं॥<br>दो०दो0- सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।<br>गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥२७८॥बाम॥278॥<br>–*–*–<br>अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥<br>सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥१॥काना॥<br>बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ॥<br>तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा॥२॥तुम्हारा॥<br>कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई॥<br>कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥३॥उपाई॥<br>कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥<br>एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा॥४॥कीन्हा॥<br>दो०दो0-गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।<br>परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥२७९॥भूपकिसोर॥279॥<br>–*–*–<br>बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥<br>भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥१॥काऊ॥<br>आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा॥<br>बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥२॥फूला॥<br>जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥<br>देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू॥३॥गेहू॥<br>बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा॥<br>बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥४॥नाहीं॥<br>दो०दो0-परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।<br>संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥२८०॥प्रबोधु॥280॥<br>–*–*–<br>बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥<br>करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥१॥रामा॥<br>छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही॥<br>भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ॥२॥नाएँ॥<br>गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥<br>टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥३॥राहू॥<br>राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥<br>जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी॥४॥अनुगामी॥<br>दो०दो0-प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।<br>बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥२८१॥दोसु॥281॥<br>–*–*–<br>देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥<br>नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा॥१॥दीन्हा॥<br>जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥<br>छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥२॥घनेरी॥<br>हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा॥कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥<br>राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥३॥तोहारा॥<br>देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥<br>सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥४॥हमारे॥<br>दो०दो0-बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।<br>बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम॥२८२॥बाम॥282॥<br>–*–*–<br>निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥<br>चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु॥१॥कृसानु॥<br>समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥<br>मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥२॥कीन्हे॥<br>मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥<br>भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥३॥ठाढ़ा॥<br>राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥<br>छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना॥४॥अभिमाना॥<br>दो०दो0-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।<br>तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥२८३॥माथ॥283॥<br>–*–*–<br>देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥<br>जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ॥१॥होऊ॥<br>छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥<br>कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥२॥रघुबंसी॥<br>बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥<br>सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के॥३॥के॥<br>राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥<br>देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥४॥भयऊ॥<br>दो०दो0-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।<br>जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात॥२८४॥अमात॥284॥<br>–*–*–<br>जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु॥<br>जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥१॥हारी॥<br>बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥<br>सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥२॥अनंगा॥<br>करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥<br>अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता॥३॥भ्राता॥<br>कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥<br>अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥४॥पराने॥<br>दो०दो0-देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।<br>हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥२८५॥सूल॥285॥<br>–*–*–<br>अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥<br>जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी॥१॥कोकिलबयनी॥<br>सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥<br>बिगत गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥२॥चकोरकुमारी॥<br>जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥<br>मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई॥३॥गोसाई॥<br>कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥<br>टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु॥४॥काहु॥<br>दो०दो0-तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।<br>बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥२८६॥आचारु॥286॥<br>–*–*–<br>दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई॥<br>मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥१॥काला॥<br>बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥<br>हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥२॥पासा॥<br>हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥<br>रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥३॥पाई॥<br>पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥<br>बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा॥४॥खंभा॥<br>दो०दो0-हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।<br>रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल॥२८७॥भूल॥287॥<br>–*–*–<br>बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥<br>कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परइ सपरन सुहाई॥१॥सुहाई॥<br>तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए॥<br>मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥२॥सरोजा॥<br>किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥<br>सुर प्रतिमा खंभन गढ़ि गढ़ी काढ़ी। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी॥३॥ठाढ़ी॥<br>चौंकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई॥४॥सुहाई॥<br>दो०दो0-सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि॥<br>हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥२८८॥डोरि॥288॥<br>–*–*–<br>रचे रुचिर बर बंदनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे॥<br>मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥१॥सुहाए॥<br>दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥<br>जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥२॥केही॥<br>दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर॥<br>जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥३॥तैसी॥<br>जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥<br>जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥४॥मोहा॥<br>दो०दो0-बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु॥<br>तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥२८९॥सेषु॥289॥<br>–*–*–<br>पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥<br>भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥१॥बोलाई॥<br>करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥<br>बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती॥२॥छाती॥<br>रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥<br>पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥३॥साँची॥<br>खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥<br>पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥४॥आई॥<br>दो०दो0-कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।<br>सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥२९०॥नरेस॥290॥<br>–*–*–<br>सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता॥<br>प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥१॥बिसेषी॥<br>तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥<br>भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥२॥निहारे॥<br>स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥<br>पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥॥३॥राऊ॥<br>जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥<br>कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने॥४॥मुसकाने॥<br>दो०दो0-सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।<br>रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥२९१॥दोउ॥291॥<br>–*–*–<br>पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥<br>जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥१॥लागे॥<br>तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥<br>सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥२॥एका॥<br>संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥<br>तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी॥॥३॥भानी॥<br>सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥<br>जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥४॥पावा॥<br>दो०दो0-तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल।<br>भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥२९२॥नाल॥292॥<br>–*–*–<br>सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥<br>देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥१॥कीन्हा॥<br>राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥<br>कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥२॥ताकें॥<br>देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ॥<br>दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥॥३॥पागी॥<br>सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥<br>कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना॥४॥माना॥<br>दो०दो0-तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ।<br>कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥२९३॥बोलाइ॥293॥<br>–*–*–<br>सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥<br>जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥१॥नाहीं॥<br>तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥<br>तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥२॥देबी॥<br>सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥<br>तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥॥३॥जाकें॥<br>बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥<br>तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥४॥निसाना॥<br>दो०दो0-चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ।<br>भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥२९४॥देवाइ॥294॥<br>–*–*–<br>राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥<br>सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥१॥बखानीं॥<br>प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बानी॥बनी॥<br>मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनंद मगन महतारीं॥२॥महतारीं॥<br>लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती॥<br>राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥॥३॥बरनी॥<br>मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥<br>दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥४॥देता॥<br>सो०सो0-जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।<br>चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥२९५॥के॥295॥ <br>कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥<br>समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होन बधाए॥१॥होने बधाए॥<br>भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥<br>सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥२॥लागे॥<br>जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि॥<br>तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई॥॥३॥बनाई॥<br>ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू॥<br>कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥४॥माला॥<br>दो०दो0-मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।<br>बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥२९६॥पुराइ॥296॥<br>–*–*–<br>जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥<br>बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि॥१॥बिमोचनि॥<br>गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनि कल सुनिकल रव कलकंठि लजानीं॥<br>भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥२॥बिताना॥<br>मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥<br>कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥॥३॥करहीं॥<br>गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥<br>बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥४॥ओरा॥<br>दो०दो0-सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।<br>जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥२९७॥अवतार॥297॥<br>–*–*–<br>भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई॥<br>चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥१॥भ्राता॥<br>भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥<br>रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥२॥बिराजे॥<br>सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥<br>नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥॥३॥उड़ाने॥<br>तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥<br>सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥४॥भारी॥<br>दो०दो0- छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।<br>जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥२९८॥प्रबीन॥298॥<br>–*–*–<br>बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥<br>फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना॥१॥निसाना॥<br>रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥<br>चवँर चारु किंकिन धुनि करही। भानु जान सोभा अपहरहीं॥२॥अपहरहीं॥<br>सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥<br>सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥॥३॥मोहे॥<br>जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप न बूड़ बेग अधिकाई॥<br>अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥४॥बोलाई॥<br>दो०दो0-चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।<br>होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात॥२९९॥जात॥299॥<br>–*–*–<br>कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥<br>चले मत्तगज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥१॥राजी॥<br>बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥<br>तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा॥२॥छंदा॥<br>मागध सूत बंदि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥<br>बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥॥३॥भाँती॥<br>कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥<br>चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥४॥बनाई॥<br>दो०दो0-सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।<br>कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर॥३००॥बीर॥300॥</poem>