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|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
 
जाओ कल्पित साथी मन के!
 
जब नयनों में सूनापन था,<br>
जर्जर तन था, जर्जर मन था<br>
तब तुम ही अवलख अवलम्ब हुए थे मेरे, एकाकी जीवन के!<br>
जाओ कल्पित साथी मन के!<br>
सच, मैनें मैंने परमार्थ ना सीखा,<br>लेकिन मैनें मैंने स्वार्थ ना सीखा,<br>तुम जग के हो , रहो न बंदी मेरे भुजबंधन भुज-बंधन के!<br>
जाओ कल्पित साथी मन के!<br>
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