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10:20, 27 मई 2017
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जहाँ नै जाय पारैॅ छै रवि,आबी गेलै उमड़लोॅ महिना होलीवहाँ जाय छै कवि।खुलेॅ लागलै देखोॅ सब्भै रोॅ बोली।
सोची समझी केॅ देखै छैकत्तेॅ हम्में आसरा देखबो,ॅ कत्तें हम्में सहबो,ॅजानी बुझी केॅ लिखै छै।आबै छै अंगड़ाई केकरा हम्में कहबोॅ।
असंभवोॅ केॅ संभव बनाय छैआँखी में नीन कहाँ, सपना देखैं छीं सांझै विहान,संभवोॅ केॅ असंभव बनाय छै।आँखी में घूरी-घूरी नाँचै छै, आबै रोॅ नै ठिकान।
सब्भे कामोॅ के अगलोॅ-बगलोॅ रोॅ सब्भै करै छै पैरबीठिठोली,जहाँ नै जाय पारैॅ छै रवि।आबी गेलै उमड़लोॅ महिना होली।
पैसा नें आपनोॅ-पराया केॅ भूलाय लागै छैडाक तार सब्भे होय गेलै बोॅन,प्यार मोहब्बतें नें सब्भै याद करी केॅ घुमाय छै।मोबाइलोॅ सें करोॅ फोन।
पानी सें तेॅ सब्भें प्यास बुझाय छैवाँही तोहें रंगों में रंगै छो,ॅ बुझै छीं तोरोॅ मोंन,ओस चाटी केॅ जैसें संतोश बुलाय छै।लागै छै तोरा सें कोय छिनै छै हमरोॅ धोॅन।
जहाँ नै जाय पारैॅ रोज हँसी उड़ाय छै रवियहाँ हमरी सहेली,वहाँ जाय आबी गेलै उमड़लोॅ महिना होली। हरदम खनकै छै कवि।चूड़ी आरो पायल,तरसाय केॅ जवानी में बनाय छोॅ घायल। खोजै छौं ऑखि रोॅ काजरें आरो कानोॅ रोॅ बाली,आयतौं पाहून ‘‘संधि’’ खेलतोॅ रंग घोली-घोली।
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