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|संग्रह=थार-सप्तक-2 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
राख मांय दब्योड़ी
चिणगारी,
राख नै झिड़की,
मैं तळै दब्योड़ी
सिलगूं
अर थूं ऊपर पड़ी बुझगी ?
राख हांस’र
पडूत्तर दिन्यो
मैं डील नै गाळ’र
तनै नीं पाळती,
तो तूं आज म्हनै
झिड़कण आळी,
जींवती किंयां ?
</poem>
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