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|संग्रह=थार-सप्तक-2 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
धणियाप हो
म्हारौ
पण कब्जौ कर लियो
म्हारी जमीन!
मन री जमीन
माथै
घरवाळां
पण म्हूं
मुगत होग्यो
उण जमीन सूं
मन री जमीन सूं
अेकलो
अबै नीं जता सकै
म्हारी जमीन अर मन री जमीन माथै
धणियाप।
मुगत हूं....मुगत हूूं...।


</poem>
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