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|संग्रह=थार-सप्तक-2 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
हक मांग्या नीं मिळै
हक खोसीजै
अै सबद कित्ता चोखा लागै।
सुणण में ठार कैवण में
आपां कदैई
हूंस जगाई
लोगां में आपरै हक सारू
आपरी भासा सारू
सोचो
कठै है जमीन
आपणीं
आपणै हक री
बणा हेताळू
हक रा
भासा रा...।
</poem>
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