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|रचनाकार=उगामसिंह राजपुरोहित `दिलीप'
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|संग्रह=थार-सप्तक-2 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
खुद रो पतियारो कोनीं
दूजां माथे निजर राखां
घरां में आग लगै
पड़ोसियां रा राज राखां।

मीठा बोल किणीं नै ई बोलया कोनीं
जिबान माथै खार राखां
खुदरै गरज ही जणा दोस्ती राखी
काम पड़ियो भाईलै रै आज, मुंडो आपां मोड़ राखां।

खूजां में माळ कोणी
होठां माथै बातांळाख राखां
मायनूं मैळा घणा हां
पर बारै सूं साफ लागां।

करां कीं कोनी आपां
नैणां में सुपणां हजार राखां
बूढ़ा-बडेरां रो कोनी आपां मान राखां
लुगाइयां रै माथै आंखियां लाल राखां।

खुद रो पतियारों कोनीं
दूजां माथै निजर राखां
घरां में आग लागै
पड़ोसियां रा राज राखां।
</poem>
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