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|रचनाकार=उगामसिंह राजपुरोहित `दिलीप'
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|संग्रह=थार-सप्तक-2 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
समै आपरै इसारां माथै
मिनख नै नचावै है।
किणीं नै बणावै किणीं नै मिटावै है
ज़िंदगी री कैड़ी-कैड़ी कवितावां बणावै है।

इण रै साथै को चालै
पार उणां री पड़ जावै
जको चालै कोनी साथै इण रै
ज़िंदगी मांय फोड़ा पावै है।

इण री धारा जाको जाणै
सफल वो हो जावै
मिनख थारा मिनख जमारां
पछै बाट किणी जोवे है।

ज़िंदगी है ओ मोटो रस्तो
जिण मांय कांटा घणां सारा
कांटा आगळिया ही
पार पड़सी मिनख जमारा मांय।

</poem>
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