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|संग्रह=थार-सप्तक-2 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
जद तक
दादो जी हा
घर में डर हो
दादो जी रै गेडियै रो।

गेडियै रो ज्यादा
पण दादोजी रो कम
डर लागतो म्हानै।

दादोजी
घर री
नान्ही मोटी जिन्सा
अर खबरां माथै
झीणी निजर राखता
बां री जूनी
मोतिया उतरयोड़ी
आख्यां सूं पड़तख
की नीं सूझतो
पण हीं यै री आंख सूं
सो कीं देखता
म्हारा दादो जी।

घर जित्ती ई
परबीती री चिंता
अखबार भोळावंतो
बा नै हरमेस
बै आखै दिन
चींतता घर आयां बिच्चै
जगती री चिंतावां नै।

अखबार समूळो बांचता
विज्ञापन तक टांचता
भूंडा विज्ञापन
फिल्मी पन्ना
हाथी नी लागण देंवता।

म्हां टाबरां रै
पढ च्यार पुड़द कर
राख लेंवता सिराणै निचै
जीमती बरियां
गऊ ग्रास राखण ताईं
की पान्ना देंवता दादी नै
जीमती बरियां
इयां ई करण सारू।

टाबरो पढल्यो दो आंक!
पढ्योड़ो सीख्योड़ो ई
काम आवै !
इण रट रै बिचाळै
खुद पढता ई
गया परा दूर म्हा सूं।
पण आज भी घर में
दादो जी री बातां रो डर है
डर है भोळावण रो!

आज भी म्हे टाबर
विज्ञापन अर फिल्मी पान्ना टाळ’र बांचां अखबार
कै बकसी दादो जी!

दादो जी कोनीं आज
फगत गेडियो है
एक कूंट धरियो
आज डर नीं है
गेडियै रो।

</poem>
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